महाभारत अनुशासनपर्व अध्याय 85 श्लोक 31-61

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पञ्चाशीतितम (85) अध्याय :अनुशासनपर्व (दानधर्म पर्व)

महाभारत: अनुशासनपर्व: पञ्चाशीतितम अध्याय: श्लोक 31-61 का हिन्दी अनुवाद

देवता बोले- मेंढकों। अग्निदेव के शाप से तुम्हारे जिव्हा नहीं होगी; अतः तुम रसों के ज्ञान से शून्य रहोगे तथापि हमारी कृपा से तुम नाना प्रकार की वाणी का उच्चारण कर सकोगे। बिल में रहते समय तुम आहार न मिलने के कारण अचेत और निष्प्राण होकर सूख जाओगे तो भी भूमि तुम्हें धारण किये रहेगी । वर्षा का जल मिलने पर तुम पुनः जीवित हो उठोगे। घने अन्धकार से भरी हुई रात्रि में भी तुम विचरते रहोगे। मेंढकों से ऐसा कहकर देवता पुनः अग्नि की खोज के लिये इस पृथ्वी पर विचरने लगे; किंतु वे अग्निदेव को कहीं उपलब्ध न कर सके। भृगुश्रेष्ठ। तदनन्तर देवराज इन्द्र के एरावत की भांति कोई विशालकाय गजराज देवताओं से बोला- ‘अष्वत्थ अग्निरूप हैं’ भृगुकुलभूषण ! यह सुनकर अग्निदेव क्रोध से विहल हो उठे और उन्होंने समस्त हाथियों के शाप देते हुए कहा- तुम लोगों की जिव्हा उल्टी हो जायेगी। ऐसा कहकर हाथी द्वारा सूचित किये गये अग्निदेव अष्वत्थ से निकल कर शमी के भीतर प्रविष्ट हो गये। वे वहां अच्छी तरह सोना चाहते थे। प्रभो ! भृगुकुलश्रेष्ठ ! तब सत्यपराक्रमी देवताओं ने प्रसन्न हो नागों पर जिस प्रकार अपना अनुग्रह प्रकट किया, उसे सुनो । देवता बोले- हाथियों ! तुम अपनी उलटी जिव्हा से भी सब प्रकार के आहार ग्रहण कर सकोगे तथा उच्चस्वर से वाणी का उच्चारण कर सकोगे; किंतु उससे किसी अक्षर की अभिव्यक्ति नहीं होगी। ऐसा कहकर देवताओं ने पुनः अग्नि का अनुसरण किया। उधर अग्निदेव अष्वत्थ से निकल कर शमी के भीतर जा बैठे। विप्रवर ! तदनन्तर तोते ने अग्नि का पता बता दिया। फिर तो देवता शमी वृक्ष की ओर दौड़े। यह देख अग्नि ने तोते का शाप दे दिया- ‘तू वाणी से रहित हो जायेगा।' अग्निदेव ने उसकी भी जिब्हा उलट दी। अब अग्नि देव को प्रत्यक्ष देखकर देवताओं ने दयायुक्त होकर शुक से कहा-‘तू शुकयोनि में रहकर अत्यन्त वाणी रहित नहीं होगा- कुछ-कुछ बोल सकेगा। जीभ उलट जाने पर भी तेरी बोली बड़ी मधुर एवं कमनीय होगी।' ‘जैसे बड़े-बूढ़े पुरुष को बालक की समझ में न आने वाली अदभुत तोतली बोली बड़ी मीठी लगती है, उसी प्रकार तेरी बोली भी सबकों प्रिय लगेगी।' ऐसा कहकर शमी के गर्भ में अग्निदेव का दर्शन करके देवताओं ने सभी कर्मों के लिये शमी को ही अग्नि का पवित्र स्थान नियत किया। तब से अग्नि देव शमी के भीतर दृष्टिगोचर होने लगे। भार्गव। मनुष्यों ने अग्नि को प्रकट करने के लिये शमी का मंथन ही उपाय जाना। अग्नि ने रसातल में जिस जल का स्पर्श किया था और वहां शयन करने वाले अग्निदेव के तेज से जो संतप्त हो गया था, वह जल पर्वतीय झरनों के रूप में अपनी गर्मी निकालता है। उस समय देवताओं के देखकर अग्निदेव व्यथिथ हो गये और उनसे पूछने लगे- ‘किस उद्वेश्‍य से यहां आप लोगों का शुभागमन हुआ है?’ तब सम्पूर्ण देवता और महर्षि उनसे बोले- ‘हम तुम्हें एक कार्य में नियुक्त करेंगे। उसे तुम्हें करना चहिये। उस कार्य को सम्पन्न कर देने पर तुम्हें भी बहुत बड़ा लाभ होगा। अग्नि ने कहा- देवताओं ! आप लोगों का जो कार्य है उसे मैं अवश्‍य पूर्ण करूंगा, अतः उसे कहिये। मैं आप लोगों का आज्ञापालक हूं। इस विषय में आपको कोई अन्यथा विचार नहीं करना चहिये। देवता बोले- अग्निदेव। एक तारक नामक असुर है जो ब्रह्माजी के वरदान से मदमत्त होकर अपने पराक्रम से हम सब लोगों को कष्ट दे रहा है। अतः तुम उसके वध का कोई उपाय करो। तात ! महाभाग पावक! इन देवताओं, प्रजापतियों तथा ऋषियों की भी रक्षा करो। प्रभो ! हव्य वाहन ! तुम एक ऐसा तेजस्वी और महावीर पुत्र उत्पन्न करो जो उस असुर से प्राप्त होने वाले हमारे भय का नाश करे। प्रभो ! महादेवी पार्वती ने हम लोगों को संतानहीन होने का शाप दे दिया है; अतः तुम्हारे बलवीर्य के सिवा हमारे लिये दूसरा कोई आश्रय नहीं रह गया है। इसलिये हम लोगों की रक्षा करो। देवताओं के ऐसा कहने पर ‘तथास्थु’ कहकर दुर्धर्ष भगवान हव्य वाहन भागीरथी गंगा के तट पर गये। वे वहां गंगाजी से मिले। गंगाजी ने उस समय भगवान शंकर के उस तेज को गर्भ रूप से धारण किया। जैसे सूखे तिनकों अथवा लकडि़यों के ढेर में रखी हुई आग प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार वह तेजस्वी गर्भ गंगाजी के भीतर बढ़ने लगा। अग्निदेव के दिये हुए उस तेज से गंगाजी का चित्त व्याकुल हो गया। वे अत्यन्त संतप्त हो उठीं और उसे सहन करने में असमर्थ हो गयीं। अग्नि के द्वारा गंगाजी में स्थापित किया हुआ वह तेजस्वी गर्भ जब बढ रहा था, उसी समय किसी असुर ने वहां आकर सहसा बड़े जोर से भयानक गर्जना की। उस आकस्मिक महान सिंहनाद से भयभीत हुई गंगाजी की आंखे घूमने लगी और उनके नेत्रों से आंसू बहने लगा। वे अचेत हो गयीं। अतः उस गर्भ को व अपने आपको भी न संभाल सकीं। उनके सारे अंग तेज से व्याप्त हो रहे थे। विप्रवर ! उस समय जाह्नवी देवी उस गर्भ की शक्ति से अभिभूत हो कांपती हुई सी अग्नि से बोली- ‘भगवन ! मैं आपके इस तेज को धारण करने में असमर्थ हूं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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