महाभारत आदि पर्व अध्याय 145 श्लोक 1-19

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पञ्चचत्‍वारिंशदधिकशततम (145) अध्‍याय: आदि पर्व (जतुगृहपर्व))

महाभारत: आदि पर्व: >पञ्चचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद


वारणावत में पाण्‍डवों का स्‍वागत, पुरोचन का सत्‍कार पूर्वक उन्‍हें ठहराना, लाक्षागृह में निवास की व्‍यवस्‍था और युधिष्ठिर एवं भीमसेन की बातचीत वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! नरश्रेष्ठ पाण्‍डवों के शुभागमन का समाचार सुनकर वारणावत नगर से वहां के समस्‍त प्रजाजन अत्‍यन्‍त प्रसन्न हो आलस्‍य छोड़कर शास्त्र विधि के अनुसार सब तरह की मांगलिक वस्‍तुओं की भेंट लेकर हजारों की संख्‍या में नाना प्रकार की सवारियों के द्वारा उनकी अगवानी के लिये आये । कुन्‍ती कुमारों के निकट पहुंच कर वारणावत के सब लोग उनकी जय-जयकार करते और आशीर्वाद देते हुए उन्‍हें चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। उनसे घिरे हुए पुरुषसिंह धर्मराज युधिष्ठिर, जो देवताओं के समान तेजस्‍वी थे इस प्रकार शोभा पा रहे थे मानो देवमण्‍डली के बीच साक्षात् वज्र पाणिइन्‍द्र हों । निष्‍पाप जनमेजय ! पुरवासियों ने पाण्‍डवों का बड़ा स्‍वागत सत्‍कार किया। फि‍र पाण्‍डवों ने भी नागरिकों को आदर पूर्वक अपनाकर जन-समुदाय से भरे हुए सजे-सजाये वारणावत नगर में प्रवेश किया । राजन् ! नगर में प्रवेश करके वीर पाण्‍डव सबसे पहले शीघ्रता पूर्वक स्‍वधर्म पारायण ब्राह्मणों के घरों में गये । तत्‍पश्चात् वे नरश्रेष्ठ कुन्‍तीकुमार नगर के अधिकारी क्षत्रियों के यहां गये। इसी प्रकार वे क्रमश: वैश्‍य और शूद्रों के घरों पर भी उपस्थित हुए । भरतश्रेष्ठ ! नगर निवासी मनुष्‍यों द्वारा पूजित एवं सम्‍मानित हो पाण्‍डव लोग पुरोचन को आगे करके डेरे पर गये । वहां पुरोचन ने उनके खाने-पीने की उत्तम वस्‍तुऐं, सुन्‍दर शय्याएं और श्रेष्ठ आसन प्रस्‍तुत किये । उस भवन में पुरोचन द्वारा उनका बड़ा सत्‍कार हुआ । वे अत्‍यन्‍त बहुमूल्‍य सामग्रियों का उपभोग करते थे और बहुत से नगर निवासी श्रेष्ठ पुरुष उनकी सेवा में उपस्थित रहते थे। इस प्रकार वे (बड़े आनन्‍द से) वहां रहने लगे । दस दिनों तक वहां रह लेने के पश्चात् पुरोचन ने पाण्‍डवों से उस नूतन गृह के सम्‍बन्‍ध में चर्चा की, जो कहने को तो ‘शिव भवन’ था, परंतु वास्‍तव में अशिव (अमंगलकारी) था । पुरोचन के कहने से वे पुरुष सिंह पाण्‍डव अपनी सब सामग्रियों और सेवकों के साथ उस नये भवन में गये; मानों गुह्यक गण कैलाश पर्वत पर जा रहे हों । उस घर को अच्‍छी तरह देखकर समस्‍त धर्मात्‍माओं श्रेष्ठ युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा- ‘भाई ! यह भवन तो आग भड़काने वाली वस्‍तुओं से जान पड़ता है । ‘शत्रुओं को संताप देने वाले भीमसेन ! मुझे इस घर की दीवारों से घी और लाह मिली हुई चर्बी की गंध आ रही है। अत: स्‍पष्ट जान पड़ता है कि इस घर का निर्माण अग्नि दीपक पदार्थों से ही हुआ है । ‘गृह निर्माण के कर्म में सुशिक्षित एवं विश्‍वसनीय कारीगरों ने अवश्‍य ही घर बनाते समय सन, राल, मूंज, बल्‍वज (मोटे तिनकों वाली घास) और बांस आदि सब द्रव्‍यों को घी से सींचकर बड़ी खूबी के साथ इन सबके द्वारा इस सुन्‍दर भवन की रचना की है। यह मन्‍द बुद्धि पापी पुरोचन दुर्योधन की आज्ञा के अधीन हो सदा इस घात में लगा रहता है कि जब हम लोग विश्वस्त होकर सोये हों, तब वह आग लगाकर (घर के साथ ही) हमें जला दे। यही उसकी इच्‍छा है। भीमसेन ! परम बुद्धिमान् विदुरजी ने हमारे ऊपर आने वाली इस विपत्ति को यथार्थ रूप में समझ लिया था; इसीलिये उन्‍होंने पहले ही मुझे सचेत कर दिया। विदुरजी हमारे छोटे पिता और सदा हम लोगों का हित चाहने वाले हैं। अत: उन्‍होंने स्‍नेहवश हम बुद्धिमानों का इस अशिव (अमंगलकारी) गृह के सम्‍बन्‍ध में, जिसे दुर्योधन के वशवर्ती दुष्ट कारीगरों ने छिपकर कौशल से बनाया है, पहले ही सब कुछ समझा दिया’ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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