महाभारत आदि पर्व अध्याय 187 श्लोक 16-28
सप्ताशीत्यधिकशततम (187) अध्याय: आदि पर्व (स्वयंवर पर्व)
इस प्रकार जब ब्राह्मण लोग भांति-भांति की बातें कर रहे थे, उसी समय अर्जुन धनुष के पास जाकर पर्वत के समान अविचल भाव से खड़े हो गये। फिर उन्होंने धनुष के चारों ओर घूमकर उसकी परिक्रमा की। इसके बाद वरदायक भगवान शंकर को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया और मन-ही-मन भगवान् श्रीकृष्ण का चिन्तन करके अर्जुन ने वह धनुष उठा लिया। रुक्म, सुनीथ, वक्र, कर्ण, दुर्योधन, शल्य तथा शाल्व आदि धनुर्वेद के पारंगत विद्वान पुरुषसिंह राजा लोग महान प्रयत्न करके भी जिस धनुष पर डोरी न चढ़ा सके, उसी धनुष पर विष्णु के समान प्रभावशाली एवं पराक्रमी वीरों में श्रेष्ठता का अभिमान रखनेवाले इन्द्रकुमार अर्जुन ने पलक मारते-मारते प्रत्यञ्चा चढ़ा दी। इसके बाद उन्होंने वे पांच बाण भी अपने हाथ में ले लिये। और उन्हें चलाकर बात-की-बात में (लक्ष्य) वेध दिया।वह बिंधा हुआ लक्ष्य अत्यन्त छिन्न-भिन्न हो यन्त्र के छेद से सहसा पृथ्वी पर गिर पड़ा। उस समय आकाश में बड़े जोर का हर्षनाद हुआ और सभामण्डप में तो उससे भी महान् आनन्द-कोलाहल छा गया। देवता लोग शत्रुहन्ता अर्जुन के मस्तक पर दिव्य फुलों की वर्षा करने लगे। सहस्त्रों ब्राह्मण (हर्ष में भरकर) वहां अपने दुपट्टे हिलाने लगे (मानो अर्जुन की विजय-ध्वजा फहरा रहे हों), फिर तो (जो लोग लक्ष्यवेध करने में असमर्थ हो हार मान चुके थे) वे राजा लोग सब ओर से हाहाकार करने लगे। उस रणभूमि में आकाश से सब ओर फूलों की वर्षा हो रही थी। बाजा बजाने वाले लोग सैकड़ों अंगोवाली तुरही आदि बजाने लगे। सूत और मागधगण वहां मीठे स्वर से यशोगान करने लगे। अर्जुन को देखकर शत्रुसूदन द्रुपद के हर्ष की सीमा न रही। उन्होंने अपनी सेना के साथ उनकी सहायता करने का निश्चय किया। उस समय जब महान् कोलाहल बढ़ने लगा, धर्मात्माओं में श्रेष्ठ युधिष्ठिर पुरुषोत्तम नकुल और सहदेव को साथ लेकर डेरे पर ही चले गये। लक्ष्य को बींघकर धरती पर गिरा देख इन्द्र के तुल्य पराक्रमी अर्जुन पर द्दष्टि डालकर हाथ में सुन्दर श्वेत फूलों की जयमाला लिये द्रौपदी मन्द-मन्द मुसकराती हुई कुन्तीकुमार के समीप गयी। उसका रुप जिन्होंने बार-बार देखा था, उनके लिये भी वह नित्य नयी-सी जान पड़ती थी। वह द्रुपदकुमारी बिना हंसी के भी हंसती-सी प्रतीत होती थी। मदसेवन के बिना भी (आन्तरिक अनुराग-सूचक) भावों के द्वारा लड़खड़ाती-सी चलती थी और बिना बोले भी केवल दृष्टि से ही बातचीत करती-सी जान पड़ती थी। निकट जाकर राजकुमारी द्रौपदी ने वहां जुटे हुए समस्त राजाओं के समक्ष उन सबकी उपेक्षा करके सहसा वह माला अर्जुन के गले में डाल दी और विनयपूर्वक खड़ी हो गयी। जैसे शची ने देवराज इन्द्र का, स्वाहा ने अग्निदेव का, लक्ष्मी ने भगवान् विष्णु का, उषा ने सूर्यदेव का, रति ने कामदेव का, गिरिराजकुमारी उमा ने महेश्वर का, विेदेहराजनन्दिनी सीता ने श्रीराम का तथा भीमकुमारी दमयन्ती ने नृपश्रेष्ठ नल का वरण किया था, उसी प्रकार द्रौपदी ने पाण्डु पुत्र अर्जुन का वरण कर लिया। अद्रुत कर्म करनेवाले अर्जुन इस प्रकार उस स्वंयवर सभा में (स्त्री-रत्न द्रौपदी को जीतकर) उसे अपने साथ ले रंगभूमि से बाहर निकले)। पत्नी द्रौपदी उनके पीछे-पीछे चल रही थी। उस समय उपस्थित ब्राह्मणों ने उनका बड़ा सत्कार किया।
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