महाभारत आदि पर्व अध्याय 191 श्लोक 1-25

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एकनवत्‍यधिकशततम (191) अध्‍याय: आदि पर्व (स्‍वयंवर पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: एकनवत्‍यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-25 का हिन्दी अनुवाद

धृष्‍टधुम्न गुप्‍त रुप से वहां का सब हाल देखकर राजा द्रुपद के पास आना तथा द्रौपदी के विषय में द्रुपद का प्रश्‍न

वैशम्‍पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! जब कुरुनन्‍दन भीमसेन और अर्जुन कुम्‍हार के घर पर जा रहे थे, उसी समय पाञ्जाल राजकुमार धृष्‍टधुम्न गुप्‍तरुप से उनके पीछे लग गये। उन्‍होंने चारों ओर अपने सेवकों को बैठा दिया और स्‍वयं ही अज्ञातरुप से कुम्‍हार के घर के पास ही छिपे रहे। सायंकाल होने पर शत्रुओं का मान गर्दन करनेवाले भीमसेन, अर्जुन और महानुभाव नकुल सहदेव ने भिक्षा लाकर युधिष्ठिर को निवदेन की। इन सबका अन्‍त:करण उदार था। तब उदारह्रदया कुन्‍ती ने उस समय द्रौपदी से कहा- ‘भद्रे ! तुम भोजन का प्रथम भाग लेकर उससे देवताओं को बलि अर्पण करो तथा ब्राह्मण को भिक्षा दो। ‘तथा अपने आस-पास जो दूसरे मनुष्‍य आश्रितभाव से रहते और भोजन चाहते हैं, उन्‍हें भी अन्‍न परोसो। तदनन्‍तर जो शेष बच जाय, उसके शीघ्र ही इस प्रकार विभाग करो। अन्‍न का आधा भाग एक के लिये रक्‍खो, फिर शेष के छ: भाग करके चार भाइयों के लिये चार भाग अलग-अलग रख दो, उसके बाद मेरे लिये और अपने लिये भी एक-एक भाग पृथक-पृथक परोस दो। ‘कल्‍याणी ! ये जो गजराज के समान शरीरवाले हष्‍ट-पुष्‍ट गोरे युवक बैठे हैं, इनका नाम भीम है, इन्‍हें अन्‍न का आधा भाग दे दो। वीरवर भीम सदा से ही अधिक भोजन करने वाले हैं। सास की आज्ञा में अपना कल्‍याण मानती हुई साध्‍वी राजकुमारी द्रौपदी ने अत्‍यन्‍त प्रसन्‍न होकर कुन्‍ती देवी ने जैसा कहा था, ठीक वैसा ही किया। सबने उस अन्‍न का भोजन किया। तदनन्‍तर वेगवान् वीर माद्रीकुमार सहदेव ने धरती पर कुश की शय्‍या बिछा दो। फिर समस्‍त पाण्‍डव वीर अपने-अपने मृगचर्म बिछाकर भूमि पर हो सोये। उन कुरुश्रेष्‍ठ पाण्‍डवों के सिर दक्षिण दिशा की ओर थे। कुन्‍ती उनके मस्‍तक की ओर और द्रौपदी पैरों की ओर पृथ्‍वी पर ही पाण्‍डवों के साथ सोयी, मानो उन कुशासनों पर वह उनके पैरों की तकिया बन गयी। वहां उस परिस्थिति में रहकर भी मन में तनिक भी दु:ख नहीं हुआ और उससे उन कुरुश्रेष्‍ठ वीरों का किंचिन्‍मात्र भी तिरस्‍कार नहीं किया। वे शूरवीर पाण्‍डव वहां सेनापतियों के योग्‍य अद्रुत कथाएं कहने लगे। उन्‍होंने नाना प्रकार के दिव्‍यास्‍त्रों, रथों, हाथियों, तलवारों, गदाओं तथा फरसों के विषय में भी चर्चाएं की। उनकी कही हुई वे सभी बातें उस समय पाञ्जाल राजकुमार धृष्‍टधुम्न ने सुनीं और उन सभी लोगों ने वहां सोयी हुई द्रौपदी को देखा। तदनन्‍तर राजकुमार धृष्‍टधुम्न रात में पाण्‍डवों का इतिहास तथा उनकी कही हुई सारी बातें राजा द्रुपद को पूर्ण रुप से सुनाने के लिये बड़ी उतावली के साथ राजभवन में गये। पाञ्जालराज द्रुपद पाण्‍डवों का पता न पाने के कारण बहुत खिन्‍न थे।धृष्‍टधुम्न के आने पर महात्‍मा द्रुपद ने उससे पूछा- बेटा ! मेरी पुत्री कृष्‍णा कहां गयी? कौन उसे ले गया ? ‘कहीं किसी शूद्र ने अथवा नीच जाति के पुरुष द्वारा ऊंची जाति की स्‍त्री से उत्‍पन्‍न मनुष्‍य ने या कर देनेवाले वैश्‍य ने तो मेरी पुत्री को प्राप्‍त नहीं कर लिया? और इस प्रकार उन्‍होंने मेरे सिर पर अपना कीचड़ से सना पांव तो नहीं रख दिया ? माला के समान सुकुमारी और ह्दय पर धारण करने योग्‍य मेरी लाड़ली पुत्री श्‍मशान के समान अपवित्र किसी पुरुष के हाथ में तो नहीं पड़ गयी ?


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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