महाभारत आदि पर्व अध्याय 96 श्लोक 1-23
षण्णवतितम (96) अध्याय: आदि पर्व (सम्भाव पर्व)
महाभिष को ब्रह्माजी का शाप तथा शापग्रस्त वसुओं के साथ गंगा की बातचीत
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय ! इक्ष्वाकुवंश में उत्पन्न महाभिष नाम से एक राजा हो गये हैं, जो सत्यवादी होने के साथ ही सत्यपराक्रमी भी थे। उन्होंने एक हजार अश्वमेध और एक सौ राजसूय यज्ञों द्वारा देवेश्वर इन्द्र को संतुष्ट किया और उन यज्ञों के पुण्य से उन शक्तिशाली नरेश ने स्वर्गलोक प्राप्त कर लिया। तदनन्तर एक समय सब देवता ब्रह्माजी की सेवा में उनके समीप बेठे हुए थे। वहां बहुत-से राजर्षि तथा पूर्वोक्त राजा महाभिष भी उपस्थित थे। इसी समय सरिताओं में श्रेष्ठ गंगा ब्रह्माजी के समीप आयी। उस समय वायु के झोंके से उसके शरीर का चांदनी के समान उज्ज्वल वस्त्र सहसा ऊपर की ओर उठ गया। यह देख सब देवताओं ने तुरंत अपना मुंह नीचे की ओर कर लिया; किंतु राजर्षि महाभिष नि:शंक होकर देव नदी की ओर देखते ही रह गये। तब भगवान् ब्रह्मा ने महाभिष को शाप देते हुए कहा- ‘दुर्मते ! तुम मनुष्यों में जन्म लेकर फिर पुण्यलोकों में आओगे। जिस गंगा ने तुम्हारे चित्त को चुरा लिया है, वही मनुष्य लोक में तुम्हारे प्रतिकूल आचरण करेगी। ‘जब तुम्हें गंगा पर क्रोध आ जायेगा, तब तुम भी शाप से छूट जाओगे।‘ वैशम्पायनजी कहते हैं- जनमेजय ! तब राजा महाभिष ने अन्य बहुत-से राजाओं का चिन्तन करके महा तेजस्वी राजा प्रतापी को ही अपना पिता बनाने के योग्य चुना-उन्हीं को पसंद किया। महानदी गंगा राजा महाभिष को धैर्य खोते देख मन-ही-मन उन्हीं का चिन्तन करती हुई लौटी। मार्ग से जाती हुई गंगा ने वसु देवताओं को देखा। उनका शरीर स्वर्ग से नीचे गिर रहा था। वे मोहाच्छन्न एवं मलिन दिखायी दे रहे थे । उन्हें इस रूप में देखकर नदियों में श्रेष्ठ गंगा ने पूछा-‘तुम लोगों का दिव्य रूप कैसे नष्ट हो गया? देवता सकुशल तो हैं न? तब देवताओं ने गंगा से कहा- ‘महानदी ! महात्मा वशिष्ठ ने थोड़े-से अपराध पर क्रोध में आकर हमें शाप दे दिया है। पहले की बात है एक दिन जब वशिष्ठजी पेड़ो की आड़ में संध्योपासना कर रहे थे, हम मोहवश उनका उल्लघंन करके चले गये (और उनकी धेनु का अपहरण कर लिया)। इससे कुपित होकर उन्हों ने हमें शाप दिया कि ‘तुम लोग मनुष्य योनि में जन्म लो’। ‘उन ब्रह्मवादी महर्षि ने जो बात कह दी है, वह टाली नहीं जा सकती; अत: हमारी प्रार्थना है कि तुम पृथ्वी पर मानव-पत्नी होकर हम वसुओ को अपने पुत्ररूप से उत्पन्न करो। ‘शुभे ! हमें मानुषी स्त्रियों के उदर में प्रवेश न करना पड़े, इसीलिये हमने यह अनुरोध किया है।‘ वसुओं के ऐसा कहने पर गंगाजी ‘ तथास्तु’ कहकर यों बोलीं। गंगाजी ने कहा- वसुओ ! मर्त्यलोक में ऐसे श्रेष्ठ पुरुष कौन हैं; जो तुम लोगों के पिता होंगे । वसुगण बोले- प्रतापी के पुत्र राजा शान्तनु लोक विख्यात साधु पुरुष होंगे । मनुष्य लोक में वे ही हमारे जनक होंगे। गंगाजी ने कहा- निष्पाप देवताओ ! तुम लोग जैसा कहते हो, वैसा ही मेरा विचार है। मैं राजा शान्तनु का प्रिय करूंगी और तुम्हारे इस अभिष्ट कार्य की सिद्धि करूंगी। वसुगण बोले- तीनों लोकों में प्रवाहित होने वाली गंगे ! हम लोग जब तुम्हारे गर्भ से फेंक देना; जिससे शीघ्र ही हमारा मर्त्यलोक से छुटकारा हो जाय। गंगाजी ने कहा- हम सब लोग अपने तेज का एक-एक अष्टमांश देंगे। उस तेज से जो तुम्हारा एक पुत्र होगा, वह उस राजा की इच्छा के अनुरूप होगा। किंतु मर्त्यलोक में उसकी कोई संतान न होगी। अत: तुम्हारा वह पुत्र संतान हीन होने के साथ ही अत्यन्त पराक्रमी होगा। इस प्रकार गंगा जी के साथ शर्त करके वसुगण प्रसन्नता-पूर्वक अपनी इच्छा के अनुसार चले गये।
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