महाभारत आदि पर्व अध्याय 2 श्लोक 283-303
द्वितीय अध्याय: आदि पर्व (पर्वसंग्रह पर्व)
जब अधिक से अधिक कौरव सेना नष्ट हो गयी और थोड़ी- सी बच गयी, तब दुर्योधन सरोवर में प्रवेश करके पानी को स्तम्भित कर वहीं विश्राम के लिये बैठ गया। किन्तु व्याधों ने भीमसेन से दुर्योधन की यह चेष्टा बतला दी। तब बुद्धिमान धर्मराज के आक्षेपयुक्त वचनों से अत्यन्त अमर्ष में भरकर धृतराष्ट्र पुत्र. दुर्योधन सरोवर से बाहर निकला और उसने भीमसेन के साथ गदायुद्ध किया। ये सब प्रसंग शल्य पर्व में ही हैं। उसी में युद्ध के समय बलराम जी के आगमन की बात कही गयी है। इसी प्रसंग में सरस्वती के तटवर्ती तीर्थो के पावन माहात्म्य का परिचय दिया गया है। शल्य पर्व में ही भयंकर गदा युद्ध का वर्णन किया गया है। जिसमें युद्ध करते समय भीमसेन ने हठपूर्वक (युद्ध के नियम को भंग करके) अपनी भयानक वेगशालिनी गदा से राजा दुर्योधन की दोनों जाँघे तोड़ डालीं, अद्भत अर्थ से युक्त नवम पर्व बताया गया है। इस पर्व में उनसठ (59) अध्याय कहे गये हैं, जिसमें बहुत से वृत्तान्तों का वर्णन आया है। अब इसकी श्लोक संख्या कही जाती है। कौरव-पाण्डवों के यश का पोषण करने वाले मुनिवर व्यास ने इस पर्व में तीन हजार दो सौ बीस (3220) श्लोकों की रचना की है। इसके पश्चात मैं अत्यन्त दारूण सौप्तिकपर्व की सूची बता रहा हूँ, जिसमें पाण्डवों के चले जाने पर अत्यन्त अमर्ष में भरे हुए टूटी जाँघ वाले राजा दुर्योधन के पास जो खून से लथपथ हुआ पड़ा था, सायंकाल के समय कृतवर्मा, कृपाचार्य और अश्वत्थामा-ये तीन महारथी आये। निकट आकर उन्होंने देखा, राजा दुर्योधन युद्ध के मुहारने पर इस दुर्दशा में पड़ा था। यह देखकर महारथी अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध आया और उसने प्रतिज्ञा की कि ‘मैं धृष्टद्युम्न आदि सम्पूर्ण पांचालों और मन्त्रियों सहित समस्त पाण्डवों का वध किये बिना अपना कवच नहीं उतारूँगा’। सौप्तिक पर्व में राजा दुर्योधन से ऐसी बात कहकर वे तीनों महारथी वहाँ से चले गये और सूर्यास्त होते होते एक बहुत बड़े वन में जा पहुँचे। वहाँ तीनों एक बहुत बड़े बरगद के नीचे विश्राम के लिये बैठे। तदनन्तर वहाँ एक उल्लू ने आकर रात में बहुत से कौओं को मार डाला। यह देखकर क्रोध में भरे अश्वत्थामा ने अपने पिता के अन्यायपूर्वक मारे जाने की घटना को स्मरण करके सोते समय ही पांचालों के वध का निश्चय कर लिया। तत्पश्चात पाण्डवों के शिविर के द्वार पर पहुँचकर उसने देखा, एक बड़ा भयंकर राक्षस, जिसकी ओर देखना अत्यन्त कठिन है, वहाँ खड़ा है। उसने पृथ्वी से लेकर आकाश तक के प्रदेश को घेर रखा था। अश्वत्थामा जितने भी अस्त्र चलाता, उन सबको वह राक्षस नष्ट कर देता था। यह देखकर द्रोण कुमार ने तुरन्त ही भयंकर नेत्रों वाले भगवान रूद्र की आराधना करके उन्हें प्रसन्न किया। तत्पश्चात अश्वत्थामा ने रात में निःशंक सोये हुए धृष्टद्युम्न आदि पांचालों तथा द्रौपदी पुत्रों को कृतवार्मा और कृपाचार्य की सहायता से परिजनो सहित मार डाला। भगवान श्रीकृष्ण की शक्ति का आश्रय लेने से केवल पाँच पाण्डव और महान धनुर्धर सात्र्याक बच गये, शेष सभी वीर मारे गये। यह सब प्रसंग सौप्तिकपर्व में वर्णित है। वहीं यह भी कहा गया है कि धृष्टद्युम्न के सारथि ने जब पाण्डवों को यह सूचित किया कि द्रोण पुत्र ने सोये हुए पांचालों का वध कर डाला है, तब द्रौपदी पुत्र शोक से पीडि़त तथा पिता और भाई की हत्या से व्यथित हो उठी। वह पतियों को अश्वत्थामा से इसका बदला लेने के लिये उत्तेजित करती हुई आमरण अनशन का संकल्प लेकर अन्न- जल छोड़कर बैठ गयी। द्रौपदी के कहने से भयंकर पराक्रमी महाबली भीमसेन उसका अप्रिय करने की इच्छा से हाथ में गदा ले अत्यन्त क्रोध में भयंकर गुरू पुत्र अश्वत्थामा के पीछे दौड़े। तब भीमसेन के भय से घबराकर दैव की प्रेरणा से पाण्डवों के विनाश के लिये अश्वत्थामा ने रोषपूर्वक दिव्यास्त्र का प्रयोग किया। किन्तु भगवान श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा के रोष पूर्ण वचन को शान्त करते हुए कहा-‘मैवम्’-‘पाण्डवों का विनाश न हो।’ साथ ही अर्जुन ने अपने दिव्यास्त्र द्वारा उसके अस्त्र को शान्त कर दिया। उस समय पापात्मा द्रोण पुत्र के द्रोहपूर्ण विचार को देखकर द्वैपायन व्यास एवं श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को और अश्वत्थामा ने उन्हें शाप दिया। इस प्रकार दोनों ओर से एक दूसरे को शाप प्रदान किया गया। महारथी अश्वत्थामा से मणि छीन कर विजय से सुशोभित होने वाले पाण्डवों ने प्रसन्नतापूर्वक द्रौपदी को दे दी। इन सब वृत्तान्तों से युक्त सौप्तिक पर्व दसवाँ कहा गया है। महात्मा व्यास ने इसमें अठारह अध्याय कहे हैं। इसी प्रकार उन ब्रह्मवादी मुनि ने इस पर्व में श्लोकों की संख्या आठ सौ सत्तर (870) बतायी है। उत्तम तेजस्वी व्यास जी ने इस पर्व में सौप्तिक और ऐषीक दोनों की कथाएँ सम्बद्ध कर दी हैं। इसके बाद विद्वानों ने स्त्रीपर्व कहा हैं, जो करूण- रस की धारा बहाने वाला है। प्रज्ञाचक्षु राजा धृतराष्ट्र ने पुत्र शोक से संतप्त हो भीमसेन के प्रति द्रोह-बुद्धि कर ली और श्रीकृष्ण द्वारा अपने समीप लायी हुई लोहे की मजबूत प्रतिमा को भीमसेन समझकर भुजाओं में भर लिया तथा उसे दबाकर टूक-टूक कर डाला। उस समय पुत्र शोक से पीड़ित बुद्धिमान राजा धृतराष्ट्र को विदुरजी ने मोक्ष का साक्षात्कार कराने वाली युक्तियों तथा विवेकपूर्ण बुद्धि के द्वारा संसार की दुःखरूपता का प्रतिपादन करते हुए भली भाँति समझा बुझाकर शान्त किया।
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