महाभारत आदिपर्व अध्याय 54 श्लोक 13-30

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चतु:पञ्चाशत्तम (54) अध्‍याय: आदि पर्व (आस्तीक पर्व)

महाभारत: आदि पर्व: चतु:पञ्चाशत्तम अध्‍याय: श्लोक 13-30 का हिन्दी अनुवाद

ब्रह्माजी ने कहा- जरत्‍कारु मुनि जरत्‍कारु नाम वाली जिस पत्‍नी को ग्रहण करेंगे, उसके गर्भ से उत्‍पन्‍न ब्राह्माण सर्पों को माता के शाप से मुक्‍त करेगा। देवता के समान तेजस्‍वी पुत्र ! ब्रह्माजी की यह बात सुनकर नागश्रेष्‍ठ वासुकि ने मुझे तुम्‍हारे महात्‍मा पिता की सेवा में समर्पित कर‍ दिया। यह अवसर आने से बहुत पहलेइसी निमित्‍त से मेरा विवाह किया गया। तदनन्‍दर उन महर्षि द्वारा मेरे गर्भ से तुम्‍हारा जन्‍म हुआ। जनमेजय के सर्पयज्ञ का वह पूर्वनिर्दिष्‍ट काल आज उपस्थित है (उस यज्ञ में निरन्‍तर सर्प जल रहें हैं), अत: उस भय से तुम उन सबका उद्धारकरो। मेरे भाई को भी उस भयंकर अग्नि से बचा लो। जिस उद्देश्‍य को लेकर तुम्‍हारे बुद्धिमान पिता की सेवा में मैं दी गयी, वह व्‍यर्थ नहीं जाना चाहिए। अथवा बेटा ! सर्पोंको इस संकट से बचाने के लिए तुम क्‍या उचित समझते हो।

उग्रश्रवाजी कहते हैं- माता के ऐसा कहनेपर आस्‍तीक ने उससे कहा- मा ! तुम्‍हारी जैसी आज्ञा है वैसा ही करुंगा। इसके बाद वे दु:ख पीड़ित वासुकि को जीवनदान देते हुए से बोले महान शक्तिशाली नागराज वासुके ! मैं आपको माता के उस शाप से छुड़ा दूंगा। यह आपसे सत्‍य कहता हूं।नागप्रवर ! आप निश्चिन्‍त रहें । आपके लिए कोई भय नहीं है। राजन् ! जैसे भी आपका कल्‍याण होगा, मैं वैसा प्रयत्‍न करुंगा। मैंने कभी हंसी मजाक में भी झूठी बात नहीं कही है, फि‍र इस संकट के समय तो कह ही कैसे सकता हूं । सत्‍पुरुषों में श्रेष्‍ठ मामाजी ! सर्पयज्ञ के लिए दीक्षितनृपश्रेष्‍ठ जनमेजय के पास जाकर अपनी मंगलमयी वाणी से आज उन्‍हें ऐसा संतुष्ट करुंगा, जिससे राजा का वह यज्ञ बंद हो जाएगा। महाबुद्धिमान नागराज ! मुझमें यह सब कुछ करने की योग्‍यता है, आप इस पर विश्‍वास रखें। आपके मन में मेरे प्रति जो आशा भरोसा है, वह कभी मिथ्‍या नहीं हो सकता।

वासुकी बोलें-आस्‍तीक ! माता के शाप रुप ब्रह्मदण्‍ड से पीड़त होने के कारण मुझे चक्‍कर आ रहा है, मेरा हृदय विदीर्ण होने लगा है और मुझे दिशाओं का ज्ञान नहीं हो रहा है। आस्‍तीक ने कहा- नागप्रवर ! आपको मन में किसी प्रकार का संताप नही करना चाहिये। सर्प यज्ञ की धधकती हुई आग से जो भय आपको हुआ है, में उसका नाश कर दूंगा ।। कालाग्नि के समान दाहक और अत्‍यंत भयंकर शाप का यहां मैं अवश्‍य नाश कर डालूगां। अत: आप उससे किसी तरह भय न करें । उग्रश्रवाजी कहते है- तदनन्‍तर नागराज वासुकी के भयंकर चिन्‍ता-ज्‍वर को दूर कर और उसे अपने उपर लेकर द्विज श्रेष्ठ आस्‍तीक बड़ी उतावली के साथ नागराज वासुकी आदि को प्राण संकट से छुड़ाने के लिये राजा जनमेजय के उस सर्प यज्ञ में गये, जो समस्‍त उत्तम गुणों से सम्पन्न था। वहां पहुंचकर आस्‍तीक ने परम उत्तम यज्ञमण्‍डप देखा, जो सूर्य ओर अग्नि के समान तेजस्‍वी अनेक सदस्‍यों से भरा हुआ था। द्विज श्रेष्ठ आस्‍तीक जब यज्ञमण्‍डप में प्रवेश करने लगे, उस समय द्वारपालों ने उन्‍हें रोक दिया। तब काम- क्रोध आदि शत्रुओं को संतप्त करने वाले आस्‍तीक उसमें प्रवेश करने की इच्‍छा रखकर उस यज्ञ की स्‍तुती करने लगे| इस प्रकार उस परम उत्तम यज्ञमण्‍डप के निकट पहुंचकर पुण्‍यवानों में श्रेष्ठ विप्रवर आस्‍तीक ने अक्षय कीर्ति से सुशोभित यजमान राजा जनमेजय, ॠत्विजों, सदस्‍यों तथा अग्निदेव का स्‍तवन आरम्‍भ किया।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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