महाभारत आश्‍वमेधिक पर्व अध्याय 80 श्लोक 1-16

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

अशीतितम (80) अध्याय: आश्‍वमेधिक पर्व (अनुगीता पर्व)

महाभारत: आश्‍वमेधिक पर्व: अशीतितम अध्याय: श्लोक 1-16 का हिन्दी अनुवाद

चित्रांगदा विलाप, मूर्च्‍छा से जगने पर बभ्रुवाहन का शोकोद्गार और उलूपी प्रयत्‍न से संजीवनी मणि के द्वारा अर्जुन का पुन: जीवित होना

वैशम्‍पायनजी कहते हैं– जनमेजय ! तदनन्‍तर भीरू स्‍वभाववाली कमलनयनी चित्रांगदा पतिवियोग–दु:ख से संतत्‍प होकर विलाप करती हुई मूच्‍छित हो गयी और पृथ्‍वी पर गिर पड़ी। कुछ देर बाद होश में आने पर दिव्‍य रूप धारिणी देवी चित्रांगदान ने नागकन्‍या उलूपीक को सामने खड़ी देख इस प्रकार कहा-उलूपी ! देखो, हम दोनों के स्‍वामी मारे जाकर रणभूमि में सो सो रहे हैं । तुम्‍हारी प्रेरणा से ही मेरे बेटे ने समरविजयी अर्जुन का वध किया है। बहिन ! तुम तो आर्य धर्म को जानने वाली और पतिव्रता हो । तथापि तुम्‍हारी ही करतूस से ये तुम्‍हारे पति इस समय रणभूमि में मरे पड़े हैं। किंतु यदि ये अर्जुन सर्वथा तुम्‍हारे अपराधी हों तो भी आज क्षमा कर दो । मैं तुमसे इनके प्राणों की भीख मांगती हूं । तुम धनंजय को जीवित कर दो। आर्ये ! शुभे ! तुम धर्म को जानने वाली और तीनों लोकों में विख्‍यात हो । तो भी आज पुत्र से पति की हत्‍या कराकर तुम्‍हें शोक या पश्‍चाताप नहीं हो रहा है, इसका क्‍या कारण है? नागकुमारी ! मेरा पुत्र भी मरा पड़ा है, तो भी मैं उसके लिये शोक नहीं करती । मुझे केवल पति के लिये शोक हो रहा है, जिनका मेरे यहां इस तरह आतिथ्‍य–सत्‍कार किया गया। नागकन्‍या उलूपी देवी से ऐसा कहकर यशस्‍विनी चित्रांगदा उस समय पति के निकट गई और उन्‍हें सम्‍बोधित करके इस प्रकार विलाप करने लगी-कुरुराज के प्रियतम और मेरे प्राणाधार ! उठो । महाबाहो ! मैंने तुम्‍हारा यह घोड़ा छुड़वा दिया है। प्रभो ! तुम्‍हें तो महाराज युधिष्‍ठिर के यज्ञ–संबंधी अश्‍व के पीछे–पीछे जाना है ; फिर यहां पृथ्‍वी पर कैसे सो रहे हो ? कुरुनन्‍दन ! मेरे और कौरवों के प्राण तुम्‍हारे ही अधीन हैं । तुम तो दूसरों के प्राणदाता हो, तुमने स्‍वयं कैसे प्राण त्‍याग दिये ? (इतना कहकर वह फिर उलूपी से बोली–) उलूपी ! ये पतिदेव भूतल पर पड़े हैं । तुम इन्‍हें अच्‍छी तरह देख लो । तुमने इस बेटे को उकसा कर स्‍वामी की हत्‍या करायी है । क्‍या इसके लिये तुम्‍हें शोक नहीं होता। मृत्‍यु के वश में पड़ा हुआ मेरा यह बालक चाहे सदा के लिये भूमि पर सोता रह जाय, किन्‍तु निद्रा के स्‍वामी, विजय पाने वाले अरुणनयन अर्जुन अवश्‍य जीवित हों–यही उत्‍तम है। सुभगे ! कोई पुरुष बहुत–सी स्‍त्रियों को पत्‍नी बनाकर रखे, तो उनके लिये यह अपराध या दोष की बात नहीं होती । स्‍त्रियां यदि ऐसा करें ( अनेक पुरुषों से सम्‍बन्‍ध रखें ) तो यह उनके लिये अवश्‍य दोष या पाप की बात होती है। अत: तुम्‍हारी बुद्धि ऐसी क्रूर नहीं होनी चाहिये। विधाता ने पति और पत्‍नी की मित्रता सदा रहने वाली और अटूट बनायी है । (तुम्‍हारा भी इनके साथ वही सम्‍बन्‍ध है) इस सख्‍य भाव के महत्‍व को समझो और ऐसा उपाय करो जिससे तुम्‍हारी इनके साथ हुई मैत्री सत्‍य एवं सार्थक हो। तुम्‍हीं ने बेटे को लड़ाकर उसके द्वारा इन पतिदेव की हत्‍या करवायी है । यह सब करके यदि आज तुम पुन: इन्‍हें जीवित करके दिखा दोगी तो मैं भी प्राण त्‍याग दूंगी।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।