महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-2
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
‘हजारों योनियों में भटकने के बाद भी मनुष्य योनि का मिलना कठिन होता है । ऐसे दुर्लभ मनुष्य - जन्म को पाकर भी जो धर्म का अनुष्ठान नहीं करता, वह महान् लाभ से वंचित रह जाता है। ‘आज जो लोग निन्दित, दरिद्र, कुरूप, रोगी, दूसरों के द्वेष पात्र और मूर्ख देखे जाते हैं, उन्होंने पूर्वजन्म में धर्म का अनुष्ठान नहीं किया है। ‘किंतु जो दीर्घ जीवी शूर – वीर, पण्डित, भोग – साम्रगी से सम्पन्न, निरोग और रूपवान् हैं, उनके द्वारा पूर्व जन्म में निश्चय ही धर्म का सम्पादन हुआ है । ‘इस प्रकार शुद्ध भाव से किया हुआ धर्म का अनुष्ठान उत्तम गति की प्राप्ति कराता है, परन्तु जो अधर्म का सेवन करते हैं, उन्हें पशु – पक्षी आदि तिर्यग्योनियों में गिरना पड़ता है। ‘कुन्तीपुत्र युधिष्ठर ! अब मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताता हूं, सुनो । पाण्डुनन्दन ! मैं तुम भक्त से परम धर्म का वर्णन अवश्य करूंगा। ‘तुम मेरे अत्यन्त प्रिय हो और सदा मरी ही शरण में स्थित रहते हो । तुम्हारे पूछने पर मैं परम गोपनीय आत्म तत्व का भी वर्णन कर सकता हूं, फिर धर्म संहिता के लिये तो कहना ही क्या है ? ‘इस समय धर्म की स्थापना और दुष्टों का विनाश करने के लिये अपनी माया से मानव –शरीर में अवतार धारण किया है। ‘जो लोग मुझे केवल मनुष्य - शरीर में ही समझकर मेरी अवहेलना करते हैं, वे मूर्ख हैं और संसार के भीतर बारंबार तिर्यग्योनियों में भटकते रहते हैं। ‘इसके विपरीत जो ज्ञान दृष्टि से मुझे सम्पूर्ण भूतों में स्थित देखते हैं, वे सदा मुझ में मन लगाये रहने वाले मेरे भक्त हैं, ऐसे भक्तों को मैं परम धाम में अपने पास बुला लेता हूं। ‘पाण्डु पुत्र ! मेरे भक्तों का नाश नहीं होता, वे निष्पाप होते हैं । मनुष्यों में उन्हीं का जन्म सफल है, जो मेरे भक्त हैं। ‘पाण्डुनन्दन ! पापों में अभिरत रहने वाले मनुष्य भी यदि मेरे भक्त हो जाय तो वे सारे पापों से वैसे ही मुक्त हो जाते हैं, जैसे जल से कमल का पत्ता निर्लिप्त रहता है। ‘हजारों जन्मों तक तपस्या करने से जब मनुष्यों का अन्त:करण शुद्ध हो जाता है, तब नि:संदेह भक्ति का उदय होता है। ‘मेरा जो अत्यन्त गोपनीय कूटस्थ, अचल और अविनाशी परस्वरूप है, उसका मेरे भक्तों को जैसा अनुभव होता है, वैसा देवताओं को भी नहीं होता। ‘पाण्डव ! जो मेरा अपरस्वरूप है, वह अवतार लेने पर दृष्टि गोचर होता है । संसार के समस्त जीव सब प्रकार के पदार्थों से उसकी पूजा करते हैं। ‘हजारों और करोड़ो कल्प आकर चले गये, पर जिस वैष्णरूप को देवगण देखते हैं, उसी रूप से मैं भक्तों को दर्शन देता हूं। ‘जो मनुष्य मुझे जगत् की उत्पत्ति, स्थित और संहार का कारण समझकर मेरी शरण लेता है, उसके ऊपर कृपा करके मैं उसे संसार – बन्धन से मुक्त कर देता हूं। ‘मैं ही देवताओं का आदि हूं। ब्रह्मा आदि देवताओं की मैंने ही सृष्टि की है । मैं ही अपनी प्रकृति का आश्रय लेकर सम्पूर्ण संसारकी सृष्टि करता हूं।
« पीछे | आगे » |