महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 92 वैष्णवधर्म पर्व भाग-59
द्विनवतितम (92) अध्याय: आश्वमेधिक पर्व (वैष्णवधर्म पर्व)
देवश्रेष्ठ भगवन् ! मैं आपका भक्त हूँ । अब मुझे कोई ऐसा प्रायश्चित बतलाइये, जो करने में सरल और समस्त पापों का नाश करने वाले हो। श्री भगवान् बोले – राजन् ! मैं तुम्हें अत्यन्त गोपनीय प्रायश्चित बता रहा हूँ। यह अधर्म में रुचि रखने वाले पापाचारी मनुष्यों को सुनाने योग्य नहीं है। किसी पवित्र ब्राह्मण को सामने देखने पर सहसा मेरा स्मरण करे और ‘नमो ब्रह्मण्यदेवाय’ कहकर भगवद्-बुद्धि से उन्हें प्रणाम करे। इसके बाद अष्टाक्षर मन्त्र का जप करते हुए ब्राह्मण देवता की परिक्रमा करे । ऐसा करने से ब्राह्मण संतुष्ट होते हैं और मैं उस प्रणाम करने वाले मनुष्य के पापों का नाश कर देता हूँ। जहां वराह द्वारा उखाडी हुई मृत्तिका हो, उसको सिर पर धारण करके मनुष्य सौ प्राणायाम करता है तो वह पापों से छूट जाता है। जो मनुष्य सूर्यग्रहण के समय पूर्व वाहिनी नदी के तट पर जाकर मेरे मन्दिर के निकट दक्षिणावर्त शंख के जल से अथवा कपिला गाय के सींग का स्पर्श कराये हुये जल से एक बार भी स्नान कर लेता है, उसके समस्त संचित पाप तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं। जो पूर्णिमा को उपवास करके पंचगव्य का पान करता है, उसके भी पूर्व संचित पाप नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रकार जो प्रतिमास अलग- अलग मन्त्र पढ़कर संग्रह किये हुए ब्रह्म् कूर्च का पान करता है, उसके पाप नष्ट हो जाते हैं। भरतनन्दन ! अब मैं ब्रह्मकूर्च और उसके पात्र का वर्णन करता हूँ, सुनो । पलाश या कमल के पत्ते में अथवा तांबे या सोने के बने हुए बर्तन में ब्रह्मकूर्च रखकर पीना चाहिये । ये ही उसके उपयुक्त पात्र कहे गये हैं। (ब्रह्मकूर्च की विधि इस प्रकार है-) गायत्री मन्त्र पढ़कर गौ का मूत्र, ‘गन्धद्वार’ इत्यादि मन्त्र से गौ का गोबर, ‘आप्यायस्व’ इस मन्त्र से गाय का दूध, दधिक्राव्ण’ इस मन्त्र से दह, ‘तेजोअसिशुक्रम्’ इस मन्त्र से घी, ‘देवस्य त्वा’ आदि मन्त्र के द्वारा कुश का जल तथा ‘आपो हिष्ठा मयो’ इस ऋचा के द्वारा जौ का आटा लेकर सबको एक में मिला दे और प्रज्वलित अग्नि में ब्रह्मा के उद्देश्य से विधिपूर्वक हवन करके प्रणव का उच्चारण करते हुए उपर्युक्त वस्तुओं का आलोडन और मन्थन करें। फिर प्रणव का उच्चारण करके उसे पात्र में से निकाल कर हाथ में ले और प्रणव का पाठ करते हुए ही उसे पी जाए । इस प्रकार ब्रह्मकूर्च का पान करने से मनुष्य बड़े-से-बड़े पाप से भी उसी प्रकार छुटकारा पा जाता है, जैसे सांप अपनी केंचुल से पृथक् हो जाता हैं। जो मनुष्य भीतर बैठकर अथवा सूर्य के सामने दृष्टि रखकर ‘भद्रं न:’ इस ऋचा के एक चरण का या ऋक्संहिता का पाठ करता है, उसके सब पाप नष्ट हो जाते हैं। जो मुझमें चित्त लगाकर प्रतिदिन मेरे सूक्त (पुरुषसूक्त) का पाठ करता है, वह जल से निर्लिप्त रहने वाले कमल के पत्ते की तरह कभी भी पाप से लिप्त नहीं होता। युधिष्ठिर ने पूछा-निष्पाप देवेश्वर ! जिनके भाव शुद्ध हों, वे पुण्यात्मा ब्राह्मण कैसे होते हैं तथा ब्राह्मण को अपने कर्म में सफलता न मिलने का क्या कारण है ? यह बताने की कृपा कीजिये। श्रीभगवान् ने कहा – पाण्डुनन्दन ! ब्राह्मणों का कर्म क्यों सफल होता है और क्यों निष्फल– इन बातों को मैं क्रमश: बताता हूँ, सुनो।
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