महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 102 श्लोक 1-15

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द्व्यधिकशततम (102) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: द्व्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-15 का हिन्दी अनुवाद


सुरभि और उसकी संतानों के साथ रसातल के सुख का वर्णन

नारदजी बोले - मातले ! यह पृथ्वी का सांतवा तल है, जिसका नाम रसातल है । यहाँ अमृत से उत्पन्न हुई गोमाता सुरभि निवास करती हैं । ये सुरभि पृथ्वी के सारतत्व से प्रकट, छ: रसों के सारभाग से संयुक्त एवं सर्वोत्तम, अनिर्वचनीय एकरसरूप क्षीर को सदा अपने स्तनों से प्रवाहित करती रहती है । पूर्वकाल में जब ब्रह्मा अमृतपान करके तृप्त हो उसका सारभाग अपने मुख से निकाल रहे थे, उसी समय उनके मुख से अनिंदिता सुरभि का प्रादुर्भाव हुआ था । पृथ्वी पर निरंतर गिरती हुई उस सुरभि के क्षीर की धारा से एक अनंत हृद बन गया, जिसे 'क्षीरसागर' कहते हैं । वह परम पवित्र है । क्षीरसागर से जो फेन उत्पन्न होता है, वह पुष्प के समान जान पड़ता है । वह फेन क्षीरसमुद्र के तट पर फैला रहता है, जिसे पीते हुए फेनपसंज्ञक बहुत-से मुनिश्रेष्ठ इस रसातल में निवास करते हैं । मातले ! फेन का आहार करने के कारण वे महर्षिगण 'फेनप' नाम से विख्यात हैं । वे बड़ी कठोर तपस्या में संलग्न रहते हैं । उनसे देवतालोग भी डरते हैं । मातले ! सुरभि की पुत्रिस्वरूपा चार अन्य धेनुएँ हैं, जो सब दिशाओं में निवास करती हैं । वे दिशाओं का धारण पोषण करनेवाली हैं । सुरुपा नामवाली धेनु पूर्व दिशा को धारण करती है तथा उससे भिन्न दक्षिण दिशा का हंसिका नामवाली धेनु धारण-पोषण करती है । मातले ! महाप्रभावशालिनी विश्वरूपा सुभद्रा नामवाली सुरभि कन्या के द्वारा वरुणदेव की पश्चिम दिशा धारण की जाती है । चौथी धेनु का नाम सर्वकामदूधा है । मातले ! वह धर्मयुक्त कुबेर संबंधिनी उत्तर दिशा का धारण-पोषण करती है । देवसारथे ! देवताओं ने असुरों से मिलकर मंदराचल को मथानी बनाकर इन्हीं धेनुओं के दूध से मिश्रित क्षीरसागर की दुग्धराशि का मंथन किया और उससे वारुणी, लक्ष्मी एवं अमृत को प्रकट किया । तत्पश्चात उस समुद्रमंथन से अश्वराज उच्चेश्र्वा तथा मणिरत्न कौस्तुभ का भी प्रादुर्भाव हुआ था । सुरभि अपने स्तनों से जो दूध बहाती है, वह सुधाभोजी लोगों के लिए सुधा, स्वधाभोजी पितरों के लिए स्वधा तथा अमृतभोजी देवताओं के लिए अमृतरूप है । यहाँ रसातलनिवासियों ने पूर्वकाल में जो पुरातन गाथा गायी थी, वह अब भी लोक में सुनी जाती है और मनीषी पुरुष उसका गान करते हैं । वह गाथा इस प्रकार है – 'नागलोक, स्वर्गलोक तथा स्वर्गलोक के विमान में निवास करना भी वैसा सुखदायक नहीं होता, जैसा रसातल में रहने से सुख प्राप्त होता है' ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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