महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 103 श्लोक 1-26

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त्र्यधिकशततम (103) अध्‍याय: उद्योग पर्व (भगवादयान पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: त्र्यधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद

नागलोक के नागों का वर्णन और मातली का नागकुमार सुमुख के साथ अपनी कन्या को ब्याहने का निश्चय

नारदजी बोले - मातले ! यह नागराज वासुकि द्वारा सुरक्षित उनकी भोगवती नामक पूरी है । देवराज इन्द्र की सर्वश्रेष्ठ नगरी अमरावती की तरह ही यह भी सुख समृद्धि से सम्पन्न है । ये शेषनाग स्थित हैं, जो अपने लोकप्रसिद्ध तपोबल से प्रभावसहित इस सारी पृथ्वी को सदा सरपर धारण करते हैं । भगवान शेष का शरीर कैलास पर्वत के समान श्वेत है । ये सहस्त्र मस्तक धारण करते हैं । इनकी जिव्हा अग्नि की ज्वाला के समान जान पड़ती है । ये महाबली अनंत दिव्य आभूषणों से विभूषित होते हैं। यहाँ सुरसा के पुत्र नागगण शोक-संताप से रहित होकर निवास करते हैं । इनके रूप-रंग और आभूषण अनेक प्रकार के हैं । ये सभी नाग सहसत्रों की संख्या में यहाँ रहते हैं । ये सब के सब अत्यंत बलवान तथा स्वभाव से ही भयंकर हैं । इनमें से किन्हीं के शरीर में मणिका, किन्हीं के स्वस्तिक का, किन्हीं के चक्र का और किन्हीं के शरीर में कमंडल का चिन्ह है । कुछ नागों के एक सहस्त्र सिर होते हैं, किन्हीं के पाँच सौ, किन्हीं के एक सौ और किन्हीं के तीन ही सिर होते हैं। कोई दो सिरवाले, कोई पाँच सिरवाले और कोई सात मुखवाले होते हैं । किन्हीं के बड़े-बड़े फन, किन्हीं के दीर्घ शरीर और किन्हीं के पर्वत के समान स्थूल शरीर होते हैं ॥7॥ यहाँ एक-एक वंश के नागों की कई हजार, कई लाख तथा कई अबुर्ध संख्या है । मैं जेठे-छोटे के क्रम से इनका संक्षिप्त परिचय देता हूँ, सुनो । वासुकि, तक्षक, कर्कोटक, धनंजय, कालिय, नहुष, कंबल, अश्वतर, बाह्मकुंड, मणिनाग, आपूरण, खग, वामन, एलपत्र, कुकुर, कुकुण, आर्यक, नंदक, कलश, पोतक, कैलासक, पिंजरक, एरावत, सुमनोमुख, दधिमुख, शंख, नन्द, उपनन्द, आप्त, कोटरक, शिखी, निष्ठुरिक, तित्तरी, हस्तीभद्र, कुमुद, माल्यपिण्डक, पद्मनामक दो नाग, पुंडरिक, पुष्य, मुदगरपर्णक, करवीर, पीठरक, संवृत्त, वृत्त, पिंडार, बिल्वपत्र, मूषिकाद, शिरीषक, दिलीप, शंखशीर्ष, ज्योतिष्क, अपराजित, कौरव्य, धृतराष्ट्र, कुहुर, कृषक, विरजा, धारण, सुबाहु, मुखर, जय, बधिर, अंध, विशुंडी, विरस तथा सुरस – ये और दूसरे बहुत से नाग कश्यप के वंशज हैं । मातले ! यदि यहाँ कोई वर तुम्हें पसंद हो तो देखो। कणव मुनि कहते हैं – राजन् ! तब मातली स्थिरता पूर्वक एक नाग का निरंतर निरीक्षण करके प्रसन्न से हो उठे और उन्होनें नारद जी से पूछा । मातली ने कहा – देवर्षे ! यह जो कौरव्य और आर्यक के आगे कांतिमान और दर्शनीय नागकुमार खड़ा है, किसके कुल को आनंदित करने वाला है ? इसके माता पिता कौन हैं ? यह किस नाग का पौत्र है तथा किसके वंश की महान ध्वज के समान शोभा बढ़ा रहा है ? देवर्षे ! यह अपनी एकाग्रता, धैर्य, रूप तथा तरुण अवस्था के कारण मेरे मन में समा गया है । यही गुणकेशी का श्रेष्ठ पति होने के योग्य है। कणव मुनि कहते हैं – राजन् ! मातली को सुमुख के दर्शन से प्रसन्नचित्त देखकर नारद जी ने उस समय उस नागकुमार के जन्म, कर्म और महत्व का परिचय देना आरंभ किया। नारदजी बोले - मातले ! यह नागराज सुमुख है, जो ऐरावत कुल में उत्पन्न हुआ है । यह आर्यक का पौत्र और वामन का दौहित्र है। सूत ! इसके पिता नागराज चिकुर थे, जिन्हें थोड़े ही दिन पहले गरुड ने अपना ग्रास बना लिया है। तब मातली ने प्रसन्नचित्त होकर नारदजी से कहा – 'तात ! यह श्रेष्ठ नाग मुझे अपना जमाता बनाने के योग्य जंच गया । 'मैं इससे बहुत प्रसन्न हूँ । आप इसी के लिए प्रयत्न कीजिये । मुने ! मैं इसी नाग को अपनी प्यारी पुत्री देना चाहता हूँ ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्व के अंतर्गत भगवदयानपर्व में मातलि के द्वारा वर की खोज विषयक एक सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ ।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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