महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 132 श्लोक 19-34
द्वात्रिंशदधिकशततम (132) अध्याय: उद्योग पर्व (भगवद्-यान पर्व)
द्वापर उपस्थित करने से उसे यथाभाग पुण्य और पाप का फल प्राप्त होता है, परंतु कलयुग कि प्रवृत्ति करने से राजा को अत्यंत पाप (कष्ट) भोगना पड़ता है। ऐसा करने से वह दुष्कर्मी राजा अनेक वर्षों तक नरक में ही निवास करता है । राजा का दोष जगत् को और जगत् का दोष राजा को प्राप्त होता है। बेटा ! तुम्हारे पिता-पितामहों ने जिनका पालन किया है, उन राजधर्मों की ओर ही देखो । तुम जिसका आश्रय लेना चाहते हो, वह राजर्षियों का आचार अथवा राज-धर्म नहीं है। जो सदा दयाभव में ही स्थित हो विह्वल बना रहता है, ऐसे किसी भी पुरुष ने प्रजापालनजनित किसी पुण्यफल को कभी नहीं प्राप्त किया है। तुम जिस बुद्धि के सहारे चलते हो, उसके लिए न तो तुम्हारे पिता पाण्डु ने, न मैंने और न पितामह ने ही पहले कभी आशीर्वाद दिया था (अर्थात् तुम में वैसी बुद्धि होने की कामना किसी ने नहीं की थी )। मैं तो सदा यही मानती रही हूँ कि तुम्हें यज्ञ, दान, ताप, शौर्य, बुद्धि, संतान, महत्व, बल और ओज की प्राप्ति हो। कल्याणकारी ब्राह्मणों कि भलीभाँति आराधना करने पर वे भी सदा देवयज्ञ, पितृयज्ञ, दीर्घायु, धन और पुत्रों की प्राप्ति के लिए ही आशीर्वाद देते थे। देवता और पितर अपने उपासकों तथा वंशजों से सदा दान, स्वाध्याय, यज्ञ तथा प्रजापालन की ही आशा रखते हैं। श्रीकृष्ण ! मेरा यह कथन धर्मसंगत है या अधर्मयुक्त, यह तुम स्वभाव से ही जानते हो । तात ! वे पांडव उत्तम कुल में उत्पन्न और विद्वान होकर भी इस समय जीविका के अभाव से पीड़ित हैं। भूतल पर विचारने वाले भूखे मानव जहाँ दानपति, शूरवीर क्षत्रिय के समीप पहुँचकर अन्न-पान से पूर्णत: संतुष्ट हो अपने घर को जाते हैं, वहाँ उससे बढ़कर दूसरा धर्म क्या हो सकता है ? धर्मात्मा पुरुष यहाँ राज्य पाकर किसी को दान से, किसी को बल से और किसी को मधुर वाणी द्वारा संतुष्ट करे । इस प्रकार सब ओर से आए हुए लोगों को दान, मान आदि से संतुष्ट करके अपना ले। ब्राह्मण भिक्षावृत्ति से जीविका छलावे, क्षत्रिय प्रजा का पालन करे, वैश्य धनोपार्जन करे और शूद्र उन तीनों वर्णों की सेवा करे। युधिष्ठिर ! तुम्हारे लिए भिक्षावृत्ति तो सर्वथा निषेध है और खेती भी तुम्हारे योग्य नहीं है । तुम तो दूसरों को क्षति से त्राण देनेवाले क्षत्रिय हो । तुम्हें तो बाहुबल से ही जीविका चलानी चाहिए। महाबाहो ! तुम्हारा पैतृक राज्य-भाग शत्रुओं के हाथ में पड़कर लुप्त हो गया है । तुम साम, दान, भेद अथवा दंड नीति से पुन: उसका उद्धार करो। शत्रुओं का आनंद बढ़ाने वाले पांडव ! इससे बढ़कर दु:ख की बात और क्या हो सकती है कि मैं तुम्हें जनम देकर भी बंधु-बांधवों से हीन नारी कि भाँति जीविका के लिए दूसरों के दिये हुए अन्न-पिंड की आशा लगाए ऊपर देखती रहती हूँ ।अत: तुम राजधर्म के अनुसार युद्ध करो । कायर बनकर अपने बाप-दादों का नाम मत डुबाओ और भाइयों सहित पुण्य से वंचित होकर पापमयी गति को न प्राप्त होओ।
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