महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 18 श्लोक 1-20

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अष्टादश (18) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्टादश अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

इन्द्र स्वर्ग में जाकर अपने राज्य का पालन करना, शल्य युधिष्ठर को आश्वासन देना ओर उनसे विदा लेकर दुर्योधन के यहाँ जाना

शल्य कहते हैं - युधिष्ठर ! तत्पश्चात् वुत्रासुर को मारने वाले भगवान् इन्द्र गन्धर्वो और अप्सराओं के मुख से अपनी स्तुति सुनते हुए उŸाम लक्षणों से युक्त गजराज ऐरावत पर आरूढ हो महान् तेजस्वी अग्नि देव, महर्षि बृहस्पति, यम, वरूण, धनाध्यक्ष कुबेर, समपूर्ण देवता, गन्धर्वगण तथा अप्सराओं से घिर कर स्वर्गलोक को चले । सौ यज्ञो का अनुष्ठान करने वाले देवराज इन्द्र अपनी महारानी शची से मिलकर अत्यन्त आनन्दित हो स्वर्ग का पालन करने लगे । तदन्तर वहाँ भगवान् अग्निरा ने दर्शन दिया और अर्थवेद के मन्त्रों से देवेन्द्र का पूजन किया । इससे भगवान् इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने उस समय अथर्वागिंरस को यह वर दिया । ब्रह्मन् ! आप इस अथर्व वेद में अथर्वागिंरस नाम से विख्यात होेंगे और आपको यज्ञभाग भी प्राप्त होगा । इस विषय में मेरा यह वचन उदाहरण ( प्रमाण ) होगा ‘ । महाराज युधिष्ठर ! इस प्रकार देवराज भगवान् इन्द्र ने उस समय अथर्वागिंरस की पूजा करके उन्हे विदा कर दिया । राजन ! इसके बाद सम्पूर्ण देवताओं तथा तपोवन महर्षियों की पूजा करके देवराज इन्द्र अत्यन्त प्रसन्न हो धर्म पूर्वक प्रजा का पालन करने लगे । युधिष्ठर ! इस प्रकार वत्नी सहित इन्द्र ने बारबार दुःख उठाया और शत्रुओं के वध की इच्छा से अज्ञातवास भी किया । राजेन्द्र ! तुमने अपने महामना भाइयों तथा द्रौपदी के साथ महान् बन में रहकर जो क्लेश सहन किया है, उसके लिये तुम्हे अनुताप नही करना चाहिये । भरतवंशी कुरूकुल नन्दन महाराज ! जैसे इन्द्र ने वृत्रासुर को मारकर अपना राज्य प्राप्त किया था, इसी प्रकार तुम भी अपना राज्य प्राप्त करोगें । शत्रुसूदन ! दुराचाारी, ब्राह्मण द्रोही और पापात्मा नहुष जिस प्रकार अगस्त्य के शाप से ग्रस्त होकर अनन्त वर्षो के लिये नष्ट हो गया, इसी प्रकार तुम्हारे दुरात्मा शत्रु कर्ण और दुर्योधन आदि शीघ्र ही विनाश के मुख में चले जायेंगे । वीर ! तत्पश्चात तुम अपने भाइयों तथा इस द्रौपदी के साथ समुद्र से घिरे हुए इस समस्त भूमण्डल का राज्य भोगोगे । शत्रुओं की सेना जब मोर्चा बांधकर खड़ी हो, उस समय विजय की अभिलाषा रखने वाले राजा को यह ‘इन्द्रविजय‘ नामक वेदतुल्य उपाख्यान अवश्य सुननी चाहिये । अतः विजयी वीरों में श्रेष्ठ युधिष्ठर ! मैने तुम्हे यह ‘ इन्द्र विजय‘ नमक उपाख्यान सुनाया है, क्योंकि जब महात्मा देवताआंे की स्तुति प्रशंसा की जाती है, तब वे मानव की उन्नति करते है । युधिष्ठर ! दुर्योधन के अपराध से तथा भीमसेन और अर्जुन के बल से यह महामना क्षत्रियों के संहार का अवसर उपस्थित हो गया है । जो पुरूष नियमपरायण हो इस इन्द्रविजय नामक उपाख्यान का पाठ करता है, वह पापरहित हो स्वर्ग पर विजय पाता तथा स्लोक और परलोक में भी सुखी होता है । वह मनुष्य कभी संतानहीन नही होता, उसे शत्रुजनित भय नही सताता, उस पर कोई आपत्ति नही आती, वह दीर्घायु होता है, उसे सर्वत्र विजय प्राप्त होती है तथा कभी उसकी पराजय नही होती है ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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