महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 48 श्लोक 74-85

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अष्‍टचत्‍वारिंश (48) अध्‍याय: उद्योग पर्व (यानसंधि पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: अष्‍टचत्‍वारिंश अध्याय: श्लोक 74-85 का हिन्दी अनुवाद

‘जिन्‍होंने एकमात्र रथकी सहायतासे युद्ध में भोजवंशी राजाओं को बलपूर्वक पराजित करके (रूप, सौंदर्य और) सुयश के द्वारा प्रकाशित होनेवाली उस परम सुंदरी रूक्मिणी-को को पत्‍नी रूप से ग्रहण किया, जिसके गर्भ से महामना प्रद्युम्र-का जन्‍म हुआ । ‘इन श्रीकृष्‍ण ने ही गांधर देशीय योद्धाओं को अपने वेग से कुचलकर राजा नग्‍नजित्के समस्‍त पुत्रों को पराजित किया और वहां कैद में पड़कर क्रन्‍दन हुए राजा सुदर्शन को, जो देवताओं के भी आदरणीय हैं, बन्धन-मुक्त किया । ‘इन्होंने पाण्‍डयनरेश को किंवाड़ के पल्ले से मार डाला, भयंकर युद्ध में कलिङ्गदेशीय योद्धाओं को कुचल डाला तथा इन्होंने ही काशीपुरी को इस प्रकार जलाया था कि वह बहुत वर्षों तक अनाथ पड़ी रही ।‘ये भगवान् श्रीकृष्‍ण उस‍ निषादराज एकलव्य को सदा युद्ध के लिये ललकारा करते थे, जो दूसरों के लिये अजेय था; परंतु वह श्रीकृष्‍ण के हाथ से मारा जाकर प्राणशून्य हो सदा के लिये रणशय्या में सो रहा है, ठीक उसी तरह, जैसे जम्भ नाम‍क दैत्य स्वयं ही वेगपूर्वक पर्वत पर आघात करके प्राणशून्य हो महानिद्रा में निमग्न हो गया था । ‘उग्रसेन का पुत्र कंस बड़ा दुष्‍ट था। वह भरी सभा में वृष्णि और अन्धकवंशी क्षत्रियों के बीच में बैठा हुआ था, श्रीकृष्‍ण ने बलदेवजी के साथ वहां जाकर उसे मार गिराया। इस प्रकार कंस का वध करके इन्होंने मथुरा का राज्यउग्रसेन को दे दिया । ‘इन्होंने सौभ नामक विमान पर बैठे हुए तथा माया के द्वारा अत्यन्त भयंकर रूप धारण करके आये हुए आकाश में स्थित शाल्वराज के साथ युद्ध किया और सौभ विमान के द्वार पर लगी हुई शतघ्‍नी को अपने दोनों हाथों से पकड़ लिया था। फिर इन का वेग कौन मनुष्‍य सह सकता है? । ‘असुरों का प्राग्ज्योतिषपुर नाम से प्रसिद्ध एक भयंकर किला था, जो शत्रुओं के लिये सर्वथा अजेय था। वहां भुमि-पुत्र महाबली नरकासुर निवास करता था, जिसने देवमाता अदिति के सुन्दर मणिमय कुण्‍डल हर लिये थे । ‘मृत्यु के भय से रहित देवता इन्द्र के साथ उसका सामना करने के लिये आये, परंतु नरकासुर को युद्ध में पराजित न कर सके। तब देवताओं ने भगवान् श्रीकृष्‍ण के अनिवार्य बल, पराक्रम और अस्त्र को देखकर तथा इनकी दयालु एवं दुष्‍टमनकारिणी प्रकृति को जानकर इन्हीं से पूर्वोंक्त डाकू नरकासुर का वध करने की प्रार्थना की, तब समस्त कार्यों की सिद्धि में समर्थ भगवान् श्रीकृष्‍ण ने वह दुष्कर कार्य पूर्ण करना स्वीकार किया । ‘फिर वीरवर श्रीकृष्‍ण ने निर्मोचन नगर की सीमा पर जाकर सहसा छ: हजार लोहमय पाश काट दिये, जो तीखी धारवाले थे। फिर मुर दैत्य का वध और राक्षस समूह का नाश करके निर्मोचन नगर में प्रवेश किया । ‘वहीं उस महाबली नरकासुर के सा‍थ अत्यन्त बलशाली भगवान् श्रीकृष्‍ण का युद्ध हुआ। श्रीकृष्‍ण के हाथ से मारा जाकर वह प्राणों से हाथ धो बैठा और आंधी के उखाडे़ हुए करने वृक्ष की भांति सदा के लिये रणभूमि में सा गया । ‘इस प्रकारअनुपम प्रभावशाली विद्वान् श्रीकृष्‍ण भूमि-पुत्र नरकासुर तथा मुरका वध करके देवी अदिति के वे दोनों मणिमय कुण्‍डल वहां से लेकर विजयलक्ष्‍मी और उज्जवल यश से सुशोभित हो अपनी पुरी में लौट आये ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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