महाभारत कर्ण पर्व अध्याय 31 श्लोक 36-54
एकत्रिंश (31) अध्याय: कर्ण पर्व
भरतवंशी नरेश ! मेरे तथा अर्जुन के सामने बहुत-से कार्य आते गये;इसीलिए अब तक मेरा और उनका द्वैरथ युद्ध न हो सका। प्रजानाथ ! भरतनन्दन ! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार निश्चय करके यह जो बाज कह रहा हूँ,उसे ध्यान देकर सुनो। आज मैं रण भूमि में अर्जुन का वध किये बिना नहीं लौटूँगा। हमारी इस सेना के प्रमुख वीर मारे गये हैं। अतः मैं युद्ध में जब इस सेना के भीतर खड़ा होऊँगा,उस समय अर्जुन मुझे इन्द्र की दी हुई शक्ति से वंचित जानकर अवश्य मुझ पर आक्रण करेंगे। जनेश्वर ! अब जो यहाँ हितकर बात हे,उसे सुनिये। मेरे तथा अर्जुन के पास भी दिव्यास्त्रों का समान बल है। हाथी आदि के विशाल शरीर का भेदन करने,शीघ्रता पूर्वक अस्त्र चलाने,दूर का लक्ष्य वेधने, सुन्दर रीति से युद्ध करने तथा दिव्यास्त्रों के प्रयोग में भी सव्यसाची अर्जुन मेरे समान नहीं हैं। भारत ! शारीरिक बल, शौर्य, अस्त्रविज्ञान, पराक्रम तथा शत्रुओं पर विजय पाने के उपाय को ढूँढ़ निकालने में भी सव्यसाची अर्जुन मेरी समानता नहीं कर सकते। मेरे धनुष का नाम विजय है। यह समस्त आयुधों में श्रेष्ठ है। इसे इन्द्र का प्रिय चाहने वाने विश्वकर्मा ने उन्हीं के लिए बनाया था। राजन् ! इन्द्र ने जिसके द्वारा दैत्यों को जीता था,जिसकी अंकार से दैत्यों को दसों दिशाओं के पहचानने में भ्रम हो जाता था,उसी अपने परम प्रिय दिव्य धनुष को इन्द्र ने परशुराम जी को दिया था और परशुराम जी ने वह दिव्य उत्तम धनुष मुझे दे दिया है। उसी धनुष के द्वारा मैं विजयी वीरों में श्रेष्ठ महाबाहु अर्जुन के साथ युद्ध करूँगा। ठीक वैसे ही,जैसे समरांगण में आये हुए समस्त दैत्यों के साथ इन्द्र ने युद्ध किया था। परशुराम जी का दिया हुआ वह घोर धनुष गाण्डीव से श्रेष्ठ है। यह वही धनुष है,जिसके द्वारा परशुराम जी ने पृथ्वी पर इक्कीस बार विजय पायी थी। स्वयं भृगुनन्दन परशुराम ने ही मुझे उस धनुष के दिव्य कर्म बताये हैं और उसे उन्होंने मुझे अर्पित कर दिया है;उसी धनुष के द्वारा मैं पाण्डुकुमार अर्जुन के साथ युद्ध करूँगा। दुर्योधन ! आज मैं समरभूमि में विजयी पुरुषों में श्रेष्ठ वीर अर्जुन का वध करके बन्धु-बान्धवों सहित तुम्हें आनन्दित करूँगा। भूपाल ! आज उस वीर के मारे जाने पर पर्वत,वन,द्वीप और समुद्रों सहित यह सारी पृथ्वी तुम्हारे पुत्र-पौत्रों की परंपरा में प्रतिष्ठित हो जायेगी। जैसे उत्तम धर्म में अनुरक्त हुए मनस्वी पुरुष कि लिए सिद्धि दुर्लभ नहीं है,उसी प्रकार आज विशेषतः तुमहारा प्रिय करने हेतु मेरे लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। जैसे वृक्ष अग्नि का आक्रमण नहीं सह सकता,उसी प्रकार अर्जुन में ऐसी शक्ति नहीं है कि मेरा वेग सह सकें;परंतु जिस बात में मैं अर्जुन से कम हूँ,वह भी मुझे अवश्य बता देना उचित है। उनके धनुष की प्रत्यंचा दिव्य है। उनके पास दो बड़े-बड़े दिव्य तरकस हैं,जो कभी खाली नहीं होते तथा उनके सारथि श्रीकृष्ण हैं,ये सब मेरे पास वैसे नहीं हैं यदि उनके पास युद्ध में अजेय,श्रेष्ठ,दिव्य गाण्डीव धनुष है तो मेूरे पास भी विजय नामक महान् दिव्य एवं उत्तम धनुष मौजूद है। राजन् ! धनुष की दृष्टि से तो मैं ही अर्जुन से बढ़ा-चढ़ा हूँ;परंतु वीर पाण्डु पुत्र अर्जुन जिसके कारण मुझसे बढ़ जाते हैं,वह भी सुन लो।
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