महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 101 श्लोक 35-42

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

एकाधिकशततम (101) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: एकाधिकशततम अध्याय: श्लोक 35-42 का हिन्दी अनुवाद

अपने समीप ही खड़े हुए से सिन्‍धुराज जयद्रथ को देख कर तत्‍काल वे दोनों वीर कुपित हो उसी प्रकार सहसा उस पर टूट पड़े, जैसे दो बाज मांस पर झपट रहे हों। श्री कृष्‍ण और अर्जुन सारी सेना को लांघकर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं, यह देखकर आप के पुत्र दुर्योधन ने सिन्‍धुराज की रक्षा के लिये पराक्रम दिखाना आरम्‍भ किया। प्रभो। घोड़ों के संस्‍कार को जानने वाला राजा दुर्योधन उस समय द्रोणाचार्य के बांधे हुए कवच को धारण करके एकमात्र रथ की सहायता से युद्ध भूमि में गया था। नरेश्रवर । महाधनुर्धर श्री कृष्‍ण और अर्जुन को लांघकर आपका पुत्र कमल नयन श्री कृष्‍ण के सामाने जा पहुंचा। तदनन्‍तर आपका पुत्र दुर्योधन जब अर्जुन को भी लांघकर आगे बढ़ गया, तब सारी सेनाओं में हर्षपूर्ण बाजे बजने लगे। दुर्योधन को वहां श्री कृष्‍ण और अर्जुन के सामने खड़ा देख शख्‍ड़ों ध्‍वनि से मिले हुए सिंहनाद के शब्‍द सब ओर गूंजने लगे। प्रभो। सिन्‍धुराज की रक्षा करनेवाले जो अग्रि के समान तेजस्‍वी वीर थे, वे आपके पुत्र को समरागड में डटा हुआ देख बडे़ प्रसन्‍न हुए। राजन् । सेवकों सहित दुर्योधन सब को लांघकर सामने आ गया – यह देखकर श्री कृष्‍ण ने अर्जुन से यह समयोचित बात कही। पार्थ। देवता, असुर और मनुष्‍यों सहित तीनों लोक भी रणक्षेत्र में तुम्‍हें जीत नहीं सकते। फिर अकेले दुर्योधन की तो औकात ही क्‍या है। कुन्‍तीकुमार । सौभाग्‍य की बात है कि यह तुम्‍हारे रथ के निकट आ पहुंचा है । महाबाहो। जैसे इन्‍द्र ने वृत्रासुर को मारा था, उसी प्रकार तुम भी इस दुर्योधन को मार डालो। अनघ । यह सदा तुम्‍हारा अनर्थ करने में ही पराक्रम दिखाता आया है। इसने धर्मराज युधिष्ठिर को जूए में छल कपट से ठग लिया है। मानद । तुम लोग कभी इसकी बुराई नहीं करते थे, तो भी इस पाप बुद्धि दुर्योधन ने सदा तुम लोगों के साथ बहुत से क्रुरता पूर्ण बर्ताव किये हैं। पार्थ। तुम युद्ध में श्रेष्‍ठ बुद्धि का आश्रय ले बिना किसी सोच-विचार के, सदा क्रोध में भरे रहने वाले इस स्‍वेच्‍छाचारी दुष्‍ट पुरुष को मार डालो। पाण्‍डुनन्‍दन । दुर्योधन ने छल से तुम लोगों का राज्‍य छीन लिया है, तुम्‍हें जो वनवास का कष्‍ट भोगना पड़ा है तथा द्रौपदी को जो दु:ख और अपमान उठाना पड़ा है-इन सब बातों को मन-ही-मन याद करके पराक्रम करो। सौभाग्‍य ही यह दर्योधन तुम्‍हारे बाणों की पहुंच के भीतर चक्‍कर लगा रहा है। यह भी भाग्‍य की बात है कि यह तुम्‍हारे कार्य में बाधा डालने के लिये सामने आकर प्रयत्‍नशील हो रहा है। पार्थ । भाग्‍यवश समरागड़ण में तुम्‍हारे साथ युद्ध करना यह अपना कर्तव्‍य समझता है और भाग्‍य से ही न चाहने पर भी तुम्‍हारे सारे मनोरथ सफल हो रहे हैं। कुन्‍तीकुमार। जैसे पूर्वकाल में इन्‍द्र ने देवासुर संग्राम में जम्‍भका वध किया था, उसी प्रकार तुम रणक्षैत्र में कुलकलकड़ धृतराष्‍ट्र दुर्योधन को मार डालो। इसके मारे जाने पर अनाथ हुई इस कौरव सेना का संहार करो, दूरात्‍माओं की जड़ काट डालो, जिससे इस वैर रुपी यज्ञ का अन्‍त होकर अवभृथ स्‍नान का अवसर प्राप्‍त हो।

इस प्रकार श्रीमहाभारत द्रोणपर्व के अन्‍तर्गत जयद्रथववध पर्व में दुर्योधन का आगमन विषयक एक सौ एकवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।