महाभारत द्रोण पर्व अध्याय 126 श्लोक 1-19

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षड्विंशत्यधिकशतकम (126) अध्याय: द्रोण पर्व (जयद्रथवध पर्व)

महाभारत: द्रोण पर्व: षड्विंशत्यधिकशतकम अध्याय: श्लोक 1-19 का हिन्दी अनुवाद

युधिष्ठिर का चिन्तित होकर भीमसेन को अर्जुन और सात्यकि का पता ल्राने के लिये भेजना

संजय कहते हैं - राजन् ! जब द्रोणाचार्य पाण्डवों के व्यूहों को इस प्रकार जहाँ-तहाँ रौंदने लगे, तब पार्थ, पान्चाल तथा सोमक योद्धा उनसे बहुत दूर हट गये। भरतनन्दन ! वह रोमान्चकारी भयंकर संग्राम प्रलय काल मे होने वाले जगत् के भीषण संहार सा उपस्थित हुआ था। जब द्रोणाचार्य युद्ध में पराक्रम प्रकट करके बारंबार गर्जना कर रहे थे, पान्चाल वीरों का विनाश हो रहा था और पाण्डव सैनिक मारे जा रहे थे, उस समय धर्मराज युधिष्ठिर को कोई भी अपना आश्रय या रक्षक नहीं दिखायी दिया। राजेन्द्र ! वे सोचने लगे कि यह कैसे होगा ? तदनन्तर युधिष्ठिर ने सव्यसाची अर्जुन को देखने की इचदा से सम्पूर्ण दिशाओं में दृष्टि दौड़ायी; परन्तु उन्हें कहीं भी अर्जुन और सात्यकि नहीं दिखायी दिये। वानरश्रेष्ठ हनुमान के चिनह से युक्त ध्वज वाले पुरुषसिंह अर्जुन को न देखकर और उनके गाण्डीव घोष न सुनकर उनकी सारी इन्द्रियाँ व्यथित हो उठीं। वृष्णिवंश के प्रमुख महारथी सात्यकि को भी न देखने के कारण धर्मराज युधिष्ठिर का एक - एक अंग चिन्ता की आग से संतप्त हो उठा। महामनस्वी युधिष्ठिर लोक निन्दा के डर से बहुत डरते थे। अतः नरश्रेष्ठ अर्जुन और सात्यकि को न देखने से उस समय उन्हें तनिक भी शान्ति नहीं मिली। महाबाहु युधिष्ठिर सात्यकि के रथ के विषय में मन-ही-मन इस प्रकार चिन्ता करने लगे - ‘अहो ! मैंने ही रणक्षेत्र में मित्रों को अभय देने वाले सत्यवादी शिनि पौत्र सात्यकि को अर्जुन के मार्ग पर जाने के लिये भेजा था। इसलिये यह मेरा हृदयश् जो पहले एक ही की चिन्ता में निमग्न था, अब दो व्यक्तियों के लिये चिन्तित होकर दो भागों में बँट गया है। ‘इस समय सात्यकि का भी पता लगाना चाहिये और पाण्डुपुत्र अर्जुन का भी। मैंने पाण्डुपुत्र अर्जुनद के पीछे तो सात्यकि को भेज दिया। अब सात्यकि के पीछे किसको युद्धभूमि में भेजूँगा? ‘यदि मैं युयुधान की खोज न कराकर प्रयत्न पूर्वक केवल अपने भाई अर्जुन का ही अन्वेषण करूँगा तो संसार मेरा निन्दा करेगा।
सब लोग यही कहेंगे कि धर्म पुत्र युधिष्ठिर अपने भाई की खोज करके वृष्णिवंशी और सत्यपराक्रमी सात्यकि की उपेक्षा कर रहे हैं। मुझे लोक निन्दा से बड़ा भय मालूम होता है। अतः कुन्तीनन्दन भीमसेन को मैं महामनस्वी सात्यकि का पता लगाने के लिये भेजूँगा। ‘शत्रुसूदन अर्जुन पर जैसा मेरा प्रेम है, वैसा ही रणदुर्मद वृष्णि वंशी वीर सात्यकि पर भी है। मैंने शिनि वंश का आनन्द बढ़ाने वाले सात्यकि को महान् कार्यभार सौंप रक्खा था। ‘उन महाबली सात्यकि ने मित्र के अनुरोध से और अपने लिये गौरव की बात समझकर समुद्र में मगर की भाँति कौरवी सेना में प्रवेश किया था। ‘बुद्धिमान् वृष्णिवंशी वीर सात्यकि के साथ परस्पर युद्ध करने वाले उन शूरवीरों का वह महान् कोलाहल सुनायी पड़ता है, जो युद्ध से कभी पीछे नहीं हटते हैं। ‘इस समय जो कर्तव्य प्रापत है, उस पर मैंने अनेक प्रकार से प्रबल विचार कर लिया है। जहाँ महारथी अर्जुन और सात्यकि गये हैं, वहीं धनुर्धर वीर पाण्डुपुत्र भीमसेन को भी जाना चाहिये - यही मुझे ठीक जँचता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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