महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 145 श्लोक 1-21

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पंचत्वारिंशदधिकशततम (145) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: पंचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-21 का हिन्दी अनुवाद

अर्जुन का जयद्रथ पर आक्रमण, कर्ण और दुर्योधन की बातचीत, कर्ण के साथ अर्जुन का युद्ध और कर्ण की पराजय तथा सब योद्धाओं के साथ अर्जुन का घोर युद्ध

धृतराष्ट्र ने पूछा-संजय ! उस अवस्था में कुरुवंशी भूरिश्रवा के मारे जाने पर पुनः जिस प्रकार युद्ध हुआ, वह मुझे बताओ।

संजय ने कहा-भारत ! भूरिश्रवा के परलोकगामी हो जाने पर महाबाहु अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण को प्रेरित करते हुए कहा-। ‘श्रीकृष्ण ! जिस ओर राजा जयद्रथ खड़ा है, उसी ओर अब इन घोड़ों को शीघ्रतापूर्वक हांकिये। कमलनयन ! सुना जाता है कि वह इस समय तीन धर्मो में विद्यमान है। निष्पाप केशव ! मेरी प्रतिज्ञा आप सफल करें। महाबाहो ! सूर्यदेव तीव्रगति से अस्ताचल की ओर जा रहे हैं। पुरुषसिंह ! मैंने यह बहुत बड़े कार्य के लिये उद्योग आरम्भ किया है। कौरव सेना के महारथी इस जयद्रथ की रक्षा कर रहे हैं। श्रीकृष्ण ! जब तक सूर्य अस्ताचल को न चले जाये, तभी तक जैसे भी मेरी प्रतिज्ञा सच्ची हो जाय और जैसे भी मैं जयद्रथ को मार सकूं, उसी प्रकार शीघ्रतापूर्वक इन घोड़ों को हांकिये। तब अश्व विद्या के ज्ञाता महाबाहु श्रीकृष्ण ने जयद्रथ को मारने के उद्देश्य से उसकी ओर चांदी के समान श्वेत घोड़ों का हांका। महाराज ! जिनके बाण कभी व्यर्थ नहीं जाते, उन अर्जुन को धनुष से छूटे हुए बाणों के समान उड़ते हुए से अश्वों द्वारा जयद्रथ की ओर जाते देख कौरव सेना के प्रधान-प्रधान वीर बड़े वेग से दौड़े। दुर्योधन, कर्ण, वृषसेन, मद्रराज शल्य, अश्वत्थामा, कृपाचार्य और स्वयं सिंधुराज जयद्रथ-ये सभी युद्ध के लिये डट गये। वहां उपस्थित हुए सिंधुराज को सामने पाकर अर्जुन ने क्रोध से उद्दीप्त नेत्रों द्वारा उसे इस प्रकार देखा, मानो जला कर भस्म कर देंगे। तब राजा दुर्योधन ने अर्जुनको जयद्रथ को मारने के लिये उसकी ओर जाते देख तुरंत ही राधापुत्र कर्ण से कहा-। सूर्यपुत्र ! यही वह युद्ध का समय आया है। महात्मन ! तुम इस समय अपना बल दिखाओ। कर्ण ! रणभूमि में अर्जुन के द्वारा जैसे भी जयद्रथ का वध न होने पावे, वैसा प्रयत्न करो।।नरवीर ! अब दिन का थोड़ा सा ही भाग शेष है। तुम अपने बाण समूहों द्वारा इस समय शत्रु को घायल करके उसके कार्य में बाधा डालो। मनुष्य लोक के प्रमुख वीरकर्ण ! दिन समाप्त होने पर तो निश्चय ही हमारी विजय हो जायगी।। सूर्यास्त होने तक यदि सिंधुराज सुरक्षित रहे तो प्रतिज्ञा झूठी होने के कारण अर्जुन अग्नि में प्रवेश कर जायेंगे। मानद ! फिर अर्जुन रहित भूतल पर उनके भाई और अनुगामी सेवक दो घड़ी भी जीवित नहीं रह सकते। कर्ण ! पाण्डवों के नष्ट हो जाने पर हम लोग पर्वत, वन और काननों सहित इस निष्कण्टक वसुधा का राज्य भोगेंगे। मानद ! दैव के मारे हुए अर्जुन की बुद्धि विपरीत हो गयी थी। इसीलिये कर्तव्य और अकर्तव्य का विचार न करके उन्होंने रणभूमि में जयद्रथ को मारने की प्रतिज्ञा कर ली। कर्ण ! निश्चय ही किरीटधारी पाण्डव अर्जुन ने अपने ही विनाश के लिये जयद्रथ वध की यह प्रतिज्ञा कर डाली है। राधानन्दन ! तुम जैसे दुर्धर्ष वीर के जीते-जी अर्जुन सिंधुराज को सूर्यास्त होने से पहले ही कैसे मार सकेंगे ? मद्रराज श्ल्य और महामना कृपाचार्य से सुरक्षित हुए जयद्रथ को अर्जुन युद्ध के मुहाने पर कैसे मार सकेंगे ? मैं, दुःशासन तथा अश्वत्थामा जिनकी रक्षा कर रहे हैं, उन सिंधुराज जयद्रथ को अर्जुन कैसे प्राप्त कर सकेंगे ? जान पड़ता है कि वे काल से प्रेरित हो रहे हैं।




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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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