महाभारत द्रोणपर्व अध्याय 148 श्लोक 12-31

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अष्टचत्वारिंशदधिकशततम (148) अध्याय: द्रोणपर्व (जयद्रथवध पर्व )

महाभारत: द्रोणपर्व: अष्टचत्वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 12-31 का हिन्दी अनुवाद

नरश्रेष्ठ शूरवीर सज्जन शत्रु को जीतकर बढ़-बढ़कर बातें नहीं बनाते, किसी को कटुवचन नहीं कहते और न किसी की निन्दा ही करते हैं। सूतपुत्र ! तेरी बुद्धि बहुत ओछी है। इसीलिये तू चपलावश बिना जांचे-बूझे बहुत-सी न सुनने योग्य असम्बद्ध बातें बक जाया करता है। तूने युद्ध में संलग्न, श्रेष्ठ व्रत के पालन में तत्पर, पराक्रमी और शूरवीर भीमसेन के प्रति जो अप्रिय वचन कहा है, तेरा यह कथन ठीक नहीं है। सारी सेनाओं के देखते-देखते मेरे और श्रीकृष्ण के सामने युद्धस्‍थल में भीमसेन ने तुझे अनेक बार रथहीन कर दिया है। परंतु उन पाण्डुनन्दन भीम ने तुझसे कोई कटूवचन नहीं कहा। तूने जो भीम को बहुत-सी रूखी बातें सुनायी हैं और परोक्ष में तुम लोगों ने जो मेरे पुत्र सुभद्राकुमार अभिमन्यु को अन्यायपूर्वक मार डाला है, अपने उस घमंड का तत्काल ही उचित फल तू प्राप्त कर ले। दुर्भते! मूढ! तूने अपने विनाश के लिये अभिमन्यु का धनुष काट दिया था, अतः तू मेरे द्वारा भृत्य, पुत्र तथा बन्धु-बान्धवों सहित प्राणदण्ड पाने योग्य है। तू अपने सारे कर्तव्य पूर्ण कर ले। तुझे भारी भय आ पहुंचा है। मैं युद्धस्थल में तेरे देखते-देखते तेरे पुत्र वृषसेन को मार डालूंगा। दूसरे भी जो राजा अपनी बुद्धि पर मोह छा जाने के कारण मेरे समीप आ जायेंगे, उन सबका संहार कर डालूंगा। इस सत्य को सामने रखकर मैं अपना धनुष छूता (शपथ खाता) हूं। ओ मूढ़ ! तुझ अपवित्र बुद्धिवाले अत्यन्त घमंडी सहायक को युद्धस्थल में धराशायी हुआ देखकर मूर्ख दुर्योधन को भी बडा पश्चाताप होगा। इस प्रकार अर्जुन के द्वारा कर्णपुत्र वृषसेन के वध की प्रतिज्ञा होने पर उस समय वहां रथियों का महान एवं भयंकर कोलाहल छा गया। उस महाभयानक तुमूल संग्राम के छिड़ जाने पर मन्द किरणों वाले भगवान सूर्यदेव अस्ताचल को चले गये। राजन ! तत्पश्‍चात भगवान श्रीकृष्ण ने प्रतिज्ञा से पार होकर युद्ध के मुहाने पर खडे़ हुए अर्जुन को हृदय से लगाकर इस प्रकार कहा-। विजयशील अर्जुन ! बडे़ सौभाग्य की बात है कि तुमने अपनी बडी भारी प्रतिज्ञा पूरी कर ली। सौभाग्य से पापी वृद्धक्षत्र पुत्र सहित मारा गया। भारत ! दुर्योधन की सेना में पहुंचकर समरभूमि में देवताओं की सेना भी शिथिल हो सकती है। जिष्णों ! इस विषय में कोई दूसरा विचार नहीं करना चाहिये। पुरूषसिंह ! मैं बहुत सोचने पर भी तीनों लोकों में कहीं तुम्हारे सिवा किसी दूसरे पुरूष को ऐसा नहीं देखता, जो इस सेना के साथ युद्ध कर सके। धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन के लिये बहुत से महान प्रभावशाली राजा यहां एकत्र हो गये हैं, जिनमें से कितने ही तुम्हारे समान या तुमसे भी अधिक बलशाली हैं। वे भी रणक्षेत्र में कवच बांधकर कुपित हो तुम्हारा सामना करने के लिये आये, परंतु टिक न सके। तुम्हारा बल और पराक्रम रूद्र, इन्द्र तथा यमराज के समान है। युद्ध में कोई भी ऐसा पराक्रम नहीं कर सकता, जैसा कि आज तुमने अकेले ही कर दिखाया है। वास्तव में तुम शत्रुओं को संताप देने वाले हो। इसी प्रकार सगे-सम्बन्धियों सहित दुरात्मा कर्ण के मारे जाने पर शत्रुओं को जीतने और द्वेषी विपक्षियों को मार डालने वाले तुझ विजयी वीर को पुनः बधाई दूंगा।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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