महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 119 श्लोक 21-50

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

विंशत्‍यधिकशततम (120) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: विंशत्‍यधिकशततम अध्याय: श्लोक 21-50 का हिन्दी अनुवाद

उस समय कौरवों पर भयंकर मोह छा गया था। कर्ण और दुर्योधन भी बारंबार लंबी सांसे खींच रहे थे। कौरवपितामह भीष्मा के इस प्रकार रथ से गिर जाने पर सर्वत्र हाहाकार मच गया। कहीं कोई मर्यादा नहीं रह गयी। भीष्मम जी को रणभूमि में गिरा देख आपका वीर पुत्र पुरूषसिंह दु:शासन अपने भाई के भेजने पर अपनी ही सेना से घिरा हुआ बडे़ वेग से द्रोणाचार्य की सेना की ओर दोड़ गया। उस समय वह कौरव-सेना को विषाद में डाल रहा था महाराज ! दु:शासन को आते देख समस्त कौरव सैनिक उसे चारों ओर से घेरकर खडे़ हो गये कि देखें, यह क्याद कहता है। भरतश्रेष्ठम ! दु:शासन ने द्रोणाचार्य से भीष्म‍ के मारे जाने का समाचार बताया। वह अप्रिय बात सुनते ही द्रोणाचार्य मूर्छित हो गये। आर्य! सचेत होने पर प्रतापी द्रोणाचार्य ने शीघ्र ही अपनी सेनाओं को युद्ध से रोक दिया। कौरवों को युद्ध से लौटते देख पाण्डीवों ने भी शीघ्रगामी अश्वोंन पर चढे़ हुए दूतो द्वारा सब ओर आदेश भेजकरअपने सैनिकों का भी युद्ध बंद करा दिया। बारी-बारी से सब सेनाओं के युद्ध से निवृत्त हो जाने पर सब राजा कवच खोलकर भीष्मओ के पास आये। तदनंतर लाखों योद्धा युद्धसे विरत होकर जैसे देवता प्रजापति की सेवा में उपस्थित होते है, उसी प्रकार महात्माद भीष्मि के पास आये। वे पाण्डतव तथा कौरव बाणशय्या पर सोये हुए भरतश्रेष्ठ भीष्म की सेवा में पहुंचकर उन्हें प्रणाम करके खडे़ हो गये। पाण्डौव तथा कौरव जब प्रणाम करके उनके सामने खडे़ हुए, तब शांतनुनंदन धर्मात्मा भीष्मख ने उनसे इस प्रकार कहा- ‘महाभाग नरेशगण ! आप लोगों का स्वाागत है। देवोपम महारथियों ! आपका स्वाागत है। मैं आप लोगों के दर्शन से बहुत संतुष्ट! हूं’। इस प्रकार उन सब लोगों से स्वाआगत भाषण करके अपने लटकते हुए शिर के द्वारा ही बोले-‘राजाओं! मेरा शिर बहुत लटक रहा है। इसके लिये आप लोग मुझे तकिया दें। तब राजा लोग तत्का‍ल बढ़िया, कोमल और महीन वस्त्रम के बने हुए बहुत-से तकिये ले आये; परंतु पितामह भीष्म ने उन्हें लेने की इच्छा नहीं की। तदनंतर पुरूषसिंह भीष्म ने हंसते हुए से उन राजाओं से कहा-‘भूमिपालो! ये तकिये वीरशय्या के अनुरूप नहीं हैं। इसके बाद वे सम्पूेर्ण लोकों के विख्यामत महारथी नरश्रेष्ठे महाबाहु पाण्डुुपुत्र धनंजय की ओर देखकर इस प्रकार बोले- ‘महाबाहु धनंजय! मेरा शिर लटक रहा है।
बेटा! यहां इसके अनुरूप जो तकिया तुम्हें ठीक जान पडे़, वह ला दो। संजय कहते हैं-राजन्! तब अर्जुनने पितामह भीष्म को प्रणाम करके अपना विशाल धनुष चढ़ा लिया और आंसू भरे नेत्रों से देखकर इस प्रकार कहा- ‘समस्तह शस्त्र धारियों में अग्रगण्य् ‍कुरूश्रेष्ठद! दुर्जय वीर पितामह! मैं आपका सेवक हूं आज्ञा दीजिये; क्या् सेवा करूं? तब शांतनुनंदन उनसे कहा-‘तात! मेरा शिर लटक रहा है। कुरूश्रेष्ठ फाल्गुठन! तुम मेरे लिये तकिया लगा दो। ‘वीर कुंतीकुमार! इस शय्या‍ के अनुरूप शीघ्र मुझे तकिया दो। तुम्हीे उसे देने में समर्थ हों; क्यों कि सम्पूर्ण धनुर्धरों में तुम्हाुरा बहुत ऊंचा स्थाघन है। तुम क्षत्रिय-धर्म के ज्ञाता तथा बुद्धि और सत्व् आदि सद्गुणों से सम्पधन्नह हो। अर्जुन ने ‘जो आज्ञा’ कहकर इस कार्य के लिये प्रयत्न करना स्वीदकार किया और गाण्डी व धनुष ले उसे अभिमन्त्रित करके झुकी हुई गांठवाले तीन बाणों को धनुष पर रक्खा ।
तत्पाश्र्चात् भरतकुल के महात्मा् महारथी भीष्मा की अनुमति ले उन अत्यंदत वेगशाली तीन तीखे बाणोंद्वारा उनके मस्त क को अनुगृहीत किया (कुछ ऊंचा करके स्थिर कर दिया) सव्यणसाची अर्जुन ने उनके अभिप्राय को समझकर जब ठीक तकिया लगा दिया, तब धर्म ओर अर्थ के तत्वख को जानने वाले धर्मात्मार भरतश्रेष्ठक भीष्मी बहुत संतुष्ट हुए। उन्होंने वह तकिया देने से अर्जुन की प्रशंसा करके उन्हेंा प्रसन्न् किया और समस्त भरतवंशियों की ओर देखकर योद्धाओं में श्रेष्ठ।, सुहृदों का आनंद बढ़ाने वाले, भरतकुलभूषण, कुंतीपुत्र अर्जुन से इस प्रकार कहा- ‘पाण्डुयनंदन! तुमने मेरी शय्याा के अनुरूप मुझे तकिया प्रदान किया है। यदि इसके विपरीत तुमने और कोई तकिया दिया होता तो मैं कुपित होकर तुम्हें शाप दे देता। ‘महाबाहो! अपने धर्म के स्थित रहनेवाले क्षत्रिय को युद्ध स्थकल में इसी प्रकार बाणशय्या पर शयन करना चाहिये। अर्जुन ने ऐसा कहकर भीष्मय ने पाण्ड वों के पास खडे़ हुए उन समस्तर राजाओं ओर राजपुत्रों से कहा-


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।