महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 122 श्लोक 1-20

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द्वाविंशत्यसधिकशततम (122) अध्याय: भीष्म पर्व (भीष्मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: द्वाविंशत्यसधिकशततम अध्याय: श्लोक 1-20 का हिन्दी अनुवाद

भीष्मि और कर्ण का रहस्यधमय संवाद

संजय कहते हैं-महाराज! शांतनुनंदन भीष्म के चुप हो जाने पर सब राजा वहां से उठकर अपने-अपने विश्राम स्थांन को चले गये। भीष्मीजी को रथ से गिराया गया सुनकर पुरूषप्रवर राधा-नंदन कर्ण के मन में कुछ भय समा गया। वह बड़ी उतावली के साथ उनके पास आया। उस समय उसने देखा, महात्मा भीष्मब शरशय्या पर सो रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे वीरवर भगवान् कार्तिकेय जन्मर-काल में शरशय्याु (सरकण्डों के बिछावन) पर सोये थे। वीर भीष्म के नेत्र बंद थे। उन्हेंइ देखकर महातेजस्वीा कर्ण की आखों में आंसू छलक आये और अश्रुगद्गदगण्ठ होकर उसने कहा-‘भीष्मव! भीष्म्! महाबाहो! कुरूश्रेष्ठ ! मैं वही राधापुत्र कर्ण हूं, जो सदा आपकी आंखों में गड़ा रहता था और जिसे आप सर्वत्र द्वेषदृष्टि से देखते थे।‘ कर्ण ने यह बात उनसे कह । उसकी बात सुनकर बंद नेत्रों वाले बलवान् कुरूवृद्ध भीष्म ने धीरे से आंखें खोलकर देख और उस स्थसन को एकांत देख पहरेदारों को दूर हटाकर एक हाथ से कर्ण का उसी प्रकार सस्नेआह आलिङ्गन किया, जैसे पिता अपने पुत्र को गले से लगाता है। तत्प श्र्चात् उन्हों ने इस प्रकार कहा- ‘आओ, आओ, कर्ण! तुम सदा मुझसे लाग-डांट रखते रहे। सदा मेरे साथ स्पीर्धा करते रहे। आज यदि तुम मेरे पास नहीं आते तो निश्र्चय ही तुम्हाोरा कल्यारण नहीं होता। ‘वत्सद! तुम राधा के नहीं, कुंती के पुत्र हो। तुम्हा रे पिता अधिरथ नहीं हैं। महाबाहो! तुम सूर्य के पुत्र हो। मैंने नारदजी से तुम्हा रा परिचय प्राप्ती किया था। ‘तात! श्रीकृष्ण द्वैपायन व्या स से भी तुम्हा्रे जन्मज का वृत्तांत ज्ञात हुआ था और जो कुछ ज्ञात हुआ, वह सत्यर है। इसमें संदेह नहीं हैं। तुम्हाीरे प्रति मेरे मन में द्वेष नहीं है; यह मैं तुमसे सत्यप कहता हूं ।
‘उत्तम व्रत का पालन करने वाले वीर! मैं कभी-कभी तुमसे जो कठोर वचन बोल दिया करता था, उसका उद्देश्यप था, तुम्हाररे उत्सामह और तेज को नष्टब करना; क्योंसकि सूतनंदन! तुम राजा दुर्योधन के उकसाने से अकारण ही समस्त पाण्डुवों पर बहुत बार आक्षेप किया करते थे । ‘तुम्हाकरा जन्मन (कन्याहवस्थाव में ही कुंती के गर्भ से उत्प्न्ने होने के कारण) धर्मलोप से हुआ है; इसीलिये नीच पुरूषों के आश्रय से तुम्हावरी बुद्धि इस प्रकार ईर्ष्याेवश गुणवान् पाण्डवों से भी द्वेष रखने वाली हो गयी है और इसी के कारण कौरव-सभा में मैंने तुम्हेंष अनेक बार कटुवचन सुनाये हैं। ‘मैं जानता हूं, तुम्हारा पराक्रम समरभूमि में शत्रुओं के लिये दु:सह है। तुम ब्राह्मण-भक्त‍, शूरवीर तथा दान में उत्तम निष्ठाु रखनेवाले हो। ‘देवापम वीर! मनुष्यों में तुम्हाेरे समान कोई नहीं है। मैं सदा अपने कुल में फूट पड़ने के डर से तुम्हें कटुवचन सुनाता रहा। ‘बाण चलाने,दिव्याअस्त्रों का संधान करने, फुर्ती दिखाने तथा अस्त्र -बल में तुम अर्जुन तथा महात्मा श्रीकृष्ण समान हो। ‘कर्ण! तुमने कुरूराज दुर्योधन के लिये कन्या‍ लाने के निमित्त अकेले काशीपुर में जाकर केवल धनुष की सहायता से वहां आये हुए समस्त राजाओं को युद्ध में परास्तय कर दिया था। ‘युद्धकी श्ला घा रखने वाले वीर! यद्यपि राजा जरासंघ दुर्जय एवं बलवान् था, तथापि वह रणभूमि में तुम्हावरी समानता न कर सका । ‘तुम ब्राह्मणभक्तल, धैर्यपूर्वक युद्ध करने वाले तथा तेज और बल से सम्पतन्न हो। संग्राम-भूमि में देवकुमारों के समान जान पड़ते हो और प्रत्येसक युद्ध में मनुष्यो से अधिक पराक्रमी हो। ‘मैंने पहले जो तुम्हानरे प्रति क्रोध किया था, वह अब दूर हो गया है: क्योंहकि प्रारब्ध के विधान को कोई पुरूषार्थद्वारा नहीं टाल सकता।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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