महाभारत भीष्म पर्व अध्याय 59 श्लोक1-18

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एकोनषष्टितम(59) अध्‍याय: भीष्म पर्व (भीष्‍मवध पर्व)

महाभारत: भीष्म पर्व: एकोनषष्टितमअध्याय: श्लोक1-18 का हिन्दी अनुवाद

भीष्म का पराक्रम, श्रीकृष्ण का भीष्म को मारने के लिये उद्यत होना, अर्जुन की प्रतिज्ञा और उनके द्वारा कौरव सेना की पराजय, तृतीय दिवस के युद्ध की समाप्ति

धृतराष्ट्र ने पूछा- संजय! उस भयंकर युद्ध में जब भीष्म ने मेरे विशेष दुखी हुए पुत्र के क्रोध दिलाने पर प्रतिज्ञा कर ली, तब उन्‍होंने उस युद्धस्थल में पाण्डवों के प्रति क्या किया ? तथा पांचाल योद्धाओं ने पितामह भीष्म के प्रति क्या किया ? । संजय ने कहा- भारत! उस दिन जब पूर्वाह्नकाल का अधिक भाग व्यतीत हो गया, सूर्यदेव पश्चिम दिशा में जाकर स्थित हुए और विजय को प्राप्त हुए महामना पाण्डव खुशी मनाने लगे, उस समय सब धर्मों के विशेषज्ञ आपके ताऊ भीष्मजी ने वेगशाली अस्त्रों द्वारा पाण्डवों की सेना पर आक्रमण किया। उनके साथ विशाल सेना चली और आपके पुत्र सब ओर से उनकी रक्षा करने लगे । भारत ! तदनन्तर आपके अन्याय से हम लोगो का पाण्डवो के साथ रोमांचकारी भयंकर संग्राम होने लगा । उस समय वहां धनुषों की टंकार तथा हथेलियो के आघात से पर्वतों के विदीर्ण होने के समान बडें जोर से शब्द होता था ।उस समय ‘खडे़ रहो, खडा हूं’ इसे बींध डालो, लौटो, स्थिर भाव से रहो, हां-हां स्थिर भाव से ही हूं, तुम प्रहार करो’ ऐसे शब्द सब और सुनायी पडते थे ।जब सोने के कवचों, किरीटों और ध्वजों पर योद्धाओं के अस्त्र-शस्त्र टकराते, तब उनसे पर्वतों पर गिरकर टकराने वाली शिलाओं के समान भयानक शब्द होता था । सैनिकों के सेकडों हजारों मस्तक तथा स्वर्णभूषित भूजाएं कट-कटकर पृथ्वी पर गिरने और तडपने लगी ।
कितने ही पुरूषशिरोमणि वीरों के मस्तक तो कट गये, परन्तु उनके धड़ पूर्ववत् धनुष-बाण एवं अन्य आयुध लिये खडे़ ही रह गये । रणक्षेत्र में बडे़ वेग से रक्त की नदी बह चली, जो देखने में बडी भयानक थी। हाथियों के शरीर उनके भीतर शिलाखण्डों के समान जान पड़ते थे। खून और मांस कीचड के समान प्रतीत होते थे। बडे़-बडे़ हाथी, घोडे और मनुष्य के शरीर से ही वह नही निकली थी और परलोकरूपी समुद्र की और प्रवाहित हो रही थी। वह रक्त-मांस की नदी गीघों और गीदड़ों को आनंद प्रदान करने वाली थी। भारत! नरेश्रष्ठ ! पाण्डवों और आपके पुत्रों का उस दिन जैसा भयानक युद्ध हुआ, वैसा न कभी देखा गया है और न सुना ही गया है । वहां युद्धस्थल में गिरये हुए योद्धाओं तथा पर्वत के श्याम शिखरों के समान पडे़ हुए हाथियों से अवरूद्ध हो जाने के कारण रथों के आने-जाने के लिये रास्ता नही रह गया था । माननीय महाराज ! इधर-उधर बिखरे हुए विचित्र कवचों तथा शिरस्त्राणों (लोहे के टोपों) से वह रणभूमि शरद्ऋतु में तारिकाओं से विभूषित आकाश की भांति शोभा पाने लगी । कुछ वीर बाणों से विदीर्ण होकर आंतो में उठने वाली पीडा से अत्यन्त कष्ट पाने पर भी समरभूमि में निर्भय तथा दर्पयुक्त भाव से शत्रुओ की और दौड़ रहे थे ।कितने ही योद्धा रणभूमि में गिरकर इस प्रकार आर्त-भाव से स्वजनों को पुकार रहे थे- ‘तात ! भ्रातः ! सखे ! बन्धों ! मेरे मित्र ! मेरे मामा ! मुझे छोड़कर न जाओ’ ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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