महाभारत वन पर्व अध्याय 134 श्लोक 17-24

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चतुस्‍त्रिं‍शदधि‍कशततम (134) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रापर्व )

महाभारत: वन पर्व: चतुस्‍त्रिं‍शदधि‍कशततम अध्‍याय: श्लोक 17-24 का हिन्दी अनुवाद

अष्‍टावक्र ने कहा- पुरूष के लि‍ये संसार में दस दि‍शायें बतायी गयी है। दस सौ मि‍लकर ही पूरा ऐ सहस्‍त्र कहा जाता है, गर्भवती स्‍त्रि‍यां दस मासतक ही गर्भ धारण करती है, नि‍न्‍दक भी दस होते है, शरीर की अवस्‍थाएं भी दस है तथा पूजनीय पुरूष भी दस ही बताये गये है । बन्‍दी ने कहा- प्राणधारी पशुओ ( जीवों ) के लि‍ए ग्‍यारह वि‍षय है। उन्‍हें प्रकाशि‍त करने वाली इन्‍द्रि‍यां भी ग्‍यारह ही है, यज्ञ, याग आदि‍ में यूप भी ग्‍यारह ही होते है, प्राणि‍यों के वि‍कार भी ग्‍यारह है, तथा स्‍वार्गीय देवताओं में जो रूद्र कहलाते है; उनकी संख्‍या भी ग्‍यारह ही है । अष्‍टावक्र बोले- एक संवत्‍सर में महीने बताये गये है, जगती छन्‍द का प्रत्‍येक पाद बारह अक्षरों का होता है, प्राकृत यज्ञ बारह दि‍नों का माना गया है, ज्ञानी पुरूष यहां बारह आदि‍त्‍यों का वर्णन करते है । बन्‍दी बोले- त्रयोदशी ति‍थि‍ उत्‍तम बतायी यी है तथा यह पृथ्‍वी तेरह द्वीपों से युक्‍त है । 1 काम क्रोघ, लोभ-मोहि‍, मद-मत्‍सर, हर्ष-शोक, राग-द्वेष और अहंकार- ये ग्‍यारह वि‍कार होते है। 2 ’मृगव्‍याध, सर्प, तहायशस्‍वी, र्नि‍ऋति‍, अजैकपाद, अर्हि‍बुध्‍न्‍य, शत्रु-संतापन पि‍ना की, दहन, ईश्‍वर, परमकान्‍ि‍मान कपाली, स्‍थाणु और भगवान भव- ये ग्‍यारह रूद्र माने गये है। 3- ‘धाता, मि‍त्र, अर्यमा, इन्‍द्र, वरूण, अंश, भग, वि‍वस्‍वान, पूषा, दसवें सवि‍ता, ग्‍यारह वे त्‍वष्‍टा और बारहवें वि‍ष्‍णु कहे गये है ।‘ लोमशजी कहते है- इतना कहकर बन्‍दी चुप हो गया । तब शेष आधे श्‍लोक की पूतिर्‍ अष्‍टावक्र ने इस प्रकार की । अष्‍टावक्र बोले- केशी नामक दानव ने भगवान वि‍ष्‍णु के साथ तेरह दि‍नों तक युद्ध कि‍या था । वेद में जो अति‍शब्‍द वि‍शि‍ष्‍ट छन्‍द बताये गये है, उनका एक एक पाद तेरह आदि‍ अक्षरों से सम्‍पन्‍न होता है ( अर्थात अति‍जगती छन्‍द का एक पाद तेरह अक्षरों का, अति‍शकरी का एक पाद पन्‍द्रह अक्षरों का, अत्‍यष्‍टि‍का प्रत्‍येक पाद सत्रह अक्षरों का तथा अति‍भूति‍ का हर एक पाद उन्‍नीस अक्षरों का होता है ) । लोमशजी कहते है- इतना सुनते ही सूतपुत्र बन्‍दी चुप हो गया और मूंह नीचा कि‍ये कि‍सी भारी सोच वि‍चार मे पड़ गया। इधर अष्‍टावक्र बोलते ही रहें, यह सब देख दर्शको और श्रोताओं में महान कोलाहल मच गया । महाराज जनक के उस समृद्धि‍शाली यज्ञ में जब कि‍ चारों ओर कोलाहल व्‍याप्‍त हो रहा था, सब ब्राह्मण हाथ जोड़े हुए श्रद्धापूर्वक अष्‍टावक्र के समीप आये और उनका आदर सत्‍कारपूर्वक पूजन कि‍या । तत्‍पश्‍चात अष्‍टावक्र ने कहा- महाराज ! इसी बन्‍दी ने पहले बहुत से शास्‍त्रज्ञ ( वि‍द्वान ) ब्राह्मणों को शास्‍त्रार्थ मे पराजि‍त करके पानी में डुबवाया है, अत: इसकी भी वही गति‍ होनी चाहि‍ये, जो इसके द्वारा दूसरो की हुई । इसलि‍ये इसे पकड़कर शीघ्र पानी में डुबवा दीजि‍ये । बन्‍दी बोला - महाराज जनक ! मैं राजा वरूण का पुत्र हुं। मेरे पि‍ता के यहां भी आपके इस यज्ञ के समान ही बारह वर्षों में पूर्ण होनेवाला यज्ञ हो रहा था। उस यज्ञ के अनुष्‍ठान के लि‍ये ही ( जल में डुबाने के बहाने ) कुछ चुने हुए श्रेष्‍ट ब्राह्मणों को मैने वरूणलोक में भेज दि‍या था ।[१]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1 यथा रोगी, दरि‍द्र, शोकार्त, राजदण्‍डि‍त, शठ, खल वृत्‍ति‍- से वंचि‍त, उन्‍मत्‍त, र्इर्ष्‍यापरायण और कामि‍- ये दस नि‍न्‍दक होते है। जैसा कि‍ नि‍म्‍नाकि‍तं श्‍लोक से सि‍युधि‍ष्‍ठि‍र होता है- ‘आमयी दुर्मत: शोकी दण्‍डि‍तश्‍व शठ: खल: । नष्‍टवृत्‍र्ति‍मदी चैष्‍यीं कामी च दश नि‍न्‍दका: ।।‘ ( इति‍ नीति‍शास्‍त्रोक्‍ति‍) 2- उन दसो अवस्‍थाओं के नाम इस प्रकार है- गर्भवास, जन्‍म, बाल्‍य, कौमार, पौगण्‍ड, कैशोर, योवन, प्रौड़, वाद्धक्‍य तथा मृत्‍यु’ 3- अध्‍यापक, पि‍ता, ज्‍येष्‍ठ भ्राता, राजा, मामा, श्‍वश्रुर, नाना, दादा अपने से बडी अवस्‍था वाले कुटुम्‍बी तथा पि‍तृत्‍य ( चाचा ताउ)- ये दस पूजनीय पुरूष माने गये है। जैसा कि‍ कूर्मपुराण का वचन है- उपाध्‍याय: पि‍ता ज्‍येष्‍ठभ्राता चैव महीपती:। मातुल: श्‍चसुरश्‍वैव मातामहपि‍तामहौ।। वन्‍धुजष्‍ठ: पि‍तृव्‍यश्‍च पुंस्‍येते गुरूओं मता: । 4- वाक्‍य बोलना, ग्रहण करना, चलना, फि‍रना, मलत्‍याग करना और मैथुन जनि‍त सुख का अनुभव करना- से पांच कामेंन्‍द्रि‍यों के वि‍षय है। शब्‍द, स्‍पर्श, रूप, रस, और गन्‍ध– से पांच ज्ञानेन्‍द्रि‍यों के वि‍षय है और इन सबका मनन- मन का वि‍षय है। इस प्रकार कुल मि‍लाकर ग्‍यारह वि‍षय है।

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