महाभारत वन पर्व अध्याय 149 श्लोक 1-18
एकोनपञ्चाशदधिकशततम (149) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
हनुमान् जीके द्वारा चारों युगोंके धर्मोंका वर्णन
वैशम्पायनजी कहते हैं-जनमेजय! हनुमान् जीके ऐसा कहनेपर प्रतापी वीर महाबाहु भीमसेनके मनमें बड़ा हर्श हुआ। उन्होंने बड़े प्रेमसे अपने भाई वानरराज हनुमानको प्रणाम करके मधुर वाणीमें कहा-'अहा! आज मेरे समान बड़भागी दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि आज मुझे अपने ज्येष्ठ भ्राताका दर्शन हुआ है। 'आये! अपने मुझपर बड़ी कृपाकी है। आपके दर्शनसे मुझे बड़ा सुख मिला है। अब मैं पुनः आपके द्वारा अपना एक और प्रिय कार्य पूर्ण करना चाहता हूं। 'वीरवर! मकरालय समुद्रको लांघते समय आपने जो अनुपम रूप धारण किया था, उसका दर्शन करनेकी मुझे बड़ी इच्छा हो रही हैं। उसे देखनेसे मुझे संतोश तो होगा ही, आपकी बातपर श्रद्धा भी हो जायेगी।' भीमसेनके ऐसा कहने-पर महातेजस्वी हनुमान् जीने हंसकर कहा- 'भैया! तुम उस स्वरूपको नहीं देख सकते; कोई दूसरा मनुष्य भी उसे नहीं देख सकता। उस समयकी अवस्था कुछ और ही थी, अब वही नहीं है। 'सत्ययुगका समय दूसरा था तथा त्रेता और द्वापरका दूसरा ही है। यह काल सभी वस्तुओंको नष्ट करनेवाला है। अब मेरा वह रूप है ही नहीं। पृथ्वी, नदी, वृक्ष, पर्वत, सिद्ध, देवता और महर्षि-ये सभी कालका अनुसरण करते हैं। प्रत्येक युगके अनुसार सभी वस्तुओंके शरीर, बल और प्रभावमें न्यूनाधिकता होती रहती है। अतः कुरूश्रेष्ठ! तुम उस स्वरूपको देखनेका आग्रह न करो। मैं भी युगका अनुसरण करता हूं; क्योंकि कालका उल्लंघन करना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन है। भीमसेनने कहा-कपिप्रवर! आप मुझे युगोंकी संख्या बताइये और प्रत्येक युगमें जो आचार, धर्म, अर्थ एवं कामेके तत्व, शुभाशुभ कर्म, उन कर्मोंकी शक्ति तथा उत्पति और विनाशादि भाव होते हैं, उनका भी वर्णन कीजिये। हनुमान् जी बोले-तात्! सबसे कृतयुग है। उसमें सनातन धर्मकी पूर्ण स्थिति रहती है। उसका कृतयुग नाम इसलिये पड़ा है, कि उस उतम युगके लोग अपना सब कर्तव्य कर्म सम्पन्न ही कर लेते थे। उनके लिये कुछ करना शेष नहीं रहता था अतः 'कृतम् एव सर्वे शुभं यस्मिन् युगे' इस व्युत्पतिके अनुसार वह 'कृतयुग' कहलाया। उस समय धर्मका हास नहीं होता था। प्रजाका अर्थात् माता-पिताके रहते हुए संतानका नाश नहीं होता था। तदनन्तर कालक्रमसे उसमें गौणता आ गयी। तात! कृतयुगमें देवता, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग नहीं थे अर्थात् ये परस्पर भेद-भाव नहीं रखते थे। उस समय क्रय-विक्रयका व्यवहार भी नहीं था। ऋक्, साम और यजुर्वेद मंत्रवर्णोका पृथक्-पृथक् विभाग नहीं था। कोई मानवी क्रिया कृषि आदि भी नहीं होती थी। उस समय चिन्तर करनेमात्रसे सबको अभीष्ट फलकी प्राप्ति हो जाती थी। सत्ययुगमें एक ही धर्म था, स्वार्थका त्याग। उस युगमें बीमारी नहीं होती थी। इन्द्रियोंमें भी क्षीणता नहीं आने पाती थी। कोई किसीके गुणोंमें दोश-दर्शन नहीं करता था। किसीको दुःखसे रोना नहीं पड़ता था और न किसीमें घमंड़ था तथा न कोई अन्य विकार ही होता था। कहीं लड़ाई-झगड़ा नहीं था, आलसी भी नहीं थे। द्वेश, चुगली, भय, संताप, ईर्ष्या और मात्सर्य भी नहीं था। उस समय योगियोंके परम आश्रय और सम्पूर्ण भूतोंकी अन्तरात्मा परब्रह्मास्वरूप भगवान् नारायणका वर्ण शुक्ल था। सत्ययुगके मनुष्य आदि प्राणियोंमें दोषोंका अभाव बतलाया है, उसका यह अभिप्राय समझना चाहिये कि अधिकांशमें उनमें इन दोषों का अभाव था। ब्राहमण, क्षत्रिय, वैष्य और शूद्र सभी शम-दम आदि स्वभावसिद्ध शुभ लक्षणोंसे सम्पन्न थे। सत्ययुगमें समस्त प्रजा अपने-अपने कर्तव्योंमें तत्पर रहती थी।
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