महाभारत वन पर्व अध्याय 162 श्लोक 1-26

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द्विषष्‍टयधिकशततम (162) अध्‍याय: वन पर्व (यक्षयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: द्विषष्‍टयधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 1-26 का हिन्दी अनुवाद

कुबेरका युधिष्ठिर आदिको उपदेश और सान्त्वना देकर अपने भवनको प्रस्थान

कुबेर बोले-युधिष्ठिर! धैर्य, दक्षता, देश, काल और पराक्रम-ये पांच लौकिक कार्योंकी सिद्धिके हेतु हैं। भारत! सत्ययुगमें सब मनुष्य धैर्यवान्, अपने-अपने कार्यमें कुशल तथा पराक्रम-विधिके ज्ञाता थे। क्षत्रियश्रेष्ठ! जो क्षत्रिय धैर्यवान्, देशकालको समझने वाला तथा सम्पूर्ण धर्मोंके विधानका ज्ञाता हैं, वह दीर्घकालतक इस पृथ्वीका शासन कर सकता है वीर पार्थ ! जो पुरूष इसी प्रकार सब कर्मोंमें प्रवृत होता हैं, वह लोकमें सुयश और परलोकमें उतम गति पाता है। देश-कालके अन्तरपर दृष्टि रखनेवाले वृत्रासुरविनाशक इन्द्रने वसुओंसहित पराक्रम करके स्वर्गका राज्य प्राप्त किया हैं। जो केवल क्रोधके वशीभूत हो अपने पतनको नहीं देखता हैं, वह पापबुद्धि पापात्मा पुरूष पापका ही अनुसरण करता हैं। जो कर्मोंके विभागको नहीं जानता, समयको नहीं पहचानता और कार्योंके वैशिष्टयको नहीं समझता है, वह खोटी बुद्धिवाला मनुष्य इह लोक तथा परलोकमें भी नष्ट ही होता हैं। साहसके कार्योंमें लगे हुए ठग एवं दुरात्मा पुरूषोंके उत्तम कर्मोंका अनुष्ठान इस लोक और परलोकमें भी व्यर्थ नष्टप्राय ही है। सब प्रकारकी (सांसारिक) सामर्थ्‍यके इच्छुक मनुष्योंका निश्चय पापपूर्ण होता है। पुरूषरत्न युधिष्ठिर ! ये भीमसेन धर्मको नहीं जानते, इन्हें अपने बलका बड़ा अभिमान है, इनकी बुद्धि अभी बालकोंकी-सी है तथा ये अत्यन्त क्रोधी और निर्भय हैं, अतः तुम इन्हें उपदेश देकर काबूमें रखो। नरेश्वर! अब पुनः तुम यहांसे राजर्षि आष्टिषेणके आश्रम पर जाकर कृष्णपक्ष भी शोक और भयसे रहित होकर रहों। महाबाहु नरेश्रेष्ठ! वहां अलकानिवासी यक्ष तथा इस पर्वतपर रहनेवाले सभी प्राणी मेरी आज्ञाके अनुसार गन्धर्वों और किन्नरोंके साथ सदा इन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसहित तुम्हारी रक्षा करेंगे। धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ नरेश ! भीमसेन यहां दुःसाहस पूर्वक आये हैं, यह बात समझाकर इन्हं अच्छी तरह मना करदो, (जिससे ये पनुः कोई अपराध न कर बैठें। राजन्! अबसे इस वनमें रहनेवाले सब यक्ष तुमलोगोंकी देखभाल करेंगे, तुम्हारी सेवामें उपस्थित होंगे और सदा तुम सब लोगोंके संरक्षणमें तत्पर रहेंगे। पुरूषरत्न पाण्डवो! इसी प्रकार हमारे सेवक तुम्हारे लिये वहां सदा स्वादिष्ठ अन्न-पान प्रचुर मात्रामें प्रस्तुत करते रहेंगे। तात युधिष्ठिर! जैसे अर्जुन देवराज इन्द्रके, भीमसेन वायुदेवके और तुम धर्मराजके योगबलसे उत्पन्न किये हुए निजी पुत्र होनेके कारण उनके द्वारा रक्षणीय हो तथा ये दोनों आत्मबलसम्पन्न नकुल-सहदेव जैसे दोनों अश्विनीकुमारोंसे उत्पन्न होनेके कारण उनके पालनीय हैं, उसी प्रकार यहां मेरे लिये भी तुम सब लोग रक्षणीय हो। अर्थतत्वकी विधिके ज्ञाता और सम्पूर्ण धर्मोंके विधानमें कुशल अर्जुन, जो भीमसेनसे छोटे हैं, इस समय कुशलपूर्वक स्वर्गलोकमें विराज रहे हैं। तात! संसारमें जो कोई भी स्वर्गीय श्रेष्ठ सम्पतियां मानी गयी हैं, वे सब अर्जुनमें जन्म-कालसे ही स्थित हैं। अमित तेजस्वी और महान् सत्वशाली अर्जुनमें दम (इन्द्रिय-संयम), दान, बल, बुद्धि, लज्जा, धैर्य, तथा उत्तम तेज-ये सभी सदु्रण विद्यमान हैं। पाण्डुनन्दन! तुम्हारे भाई अर्जुन कभी मोहवश निन्दित कर्म नहीं करते। मनुष्य आपसमें कभी अर्जुनके मिथ्याभाषणकी चर्चा नहीं करते हैं। भारत! कुरूकुलकी कीर्ति बढ़ानेवाले अर्जुन इन्द्रभवनमें देवताओं, पितरों तथा गन्धर्वोंसे सम्मानित हो अस्त्रविद्याका अभ्यास करते हैं। पार्थ! जिन्होंने सब राजाओंको धर्मपूर्वक अपने अधीन कर लिया था, वे महातेजस्वी, महापराक्रमी तथा सदाचारणपरायण महाराज शान्तनु, जो तुम्हारे पिताके पितामह थे, स्वर्गलोकमें कुरूकुलधुराण गाण्डीधारी अर्जुनसे बहुत प्रसन्न रहते हैं। महातपस्वी शान्तनुने देवताओं, पितरों, ऋषियों तथा ब्राह्मणोंकी पूजा करके यमुना-तटपर सात बड़े-बड़े अश्वमेघ यक्षोंका अनुष्ठान किया था। राजन्! वे तुम्हारे प्रपितामह राजाधिराज शान्तनु स्वर्गलोकको जीतकर उसीमें निवास करते हैं। उन्होने मुझसे तुम्हारी कुशल पूछी थी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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