महाभारत वन पर्व अध्याय 233 श्लोक 1-17

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त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम (233) अध्‍याय: वन पर्व (द्रौपदीसत्‍यभामा—संवाद पर्व )

महाभारत: वन पर्व: त्रयस्त्रिशदधिकद्विशततम अध्‍याय: श्लोक 1-17 का हिन्दी अनुवाद
द्रौपदी का सत्‍यभामाको सती स्‍त्रीके कर्तव्‍यकी शिक्षा देना

वैशम्‍पायानजी कहते हैं—जनमेजय ! जब महात्‍मा पाण्‍डव तथा ब्राह्मणलोग आसपास बैठकर धर्मचर्चा कर रहे थे, उसी समय द्रौपदी और सत्‍यभामा भी एक ओर जाकर एक ही साथ सुखपूर्वक बैठीं और अत्‍यन्‍त प्रसन्‍त्रतापूर्वक परस्‍पर हास्‍य-विनोद करने लगीं । राजेन्‍द्र ! दोनोंने एक दूसरीको बहुत दिनों बाद देखा था, इसलिये परस्‍पर प्रिय लगनेवाली बातें करती हुई वहां सुखपूर्वक बैठी रहीं । कुरूकुल और यदुकुलसे सम्‍बन्‍ध रखनेवाली अनेक विचित्र बातें उनकी चर्चाकी विषय थीं । भगवान् श्रीकृष्‍ण- की प्‍यारी पटरानी सत्राजित्कुमारी सुन्‍दरी सत्‍यभामाने एकान्‍तमें द्रौपदीसे इस प्रकार पूछा-‘शुभे ! द्रुपदकुमारि ! किस वर्तावसे तुम हृष्‍ट-पुष्‍ट अंगोवाले तथा लोकपालोंके समान वीर पाण्‍डवोंके हृदयपर अधिकार रखती हो ? किस प्रकार तुम्‍हारे वशमें रहते हुए वे कभी तुमपर कुपित नहीं होते ? प्रियदर्शने ! क्‍या कारण है कि पाण्‍डव सदा तुम्‍हारे अधीन रहते हैं और सबके सब तुम्‍हारे मुंहकी ओर देखते रहते हैं ? इसका यथार्थ रहस्‍य मुझे बताओ । ‘पाच्‍चालकुमारी कुमारी कृष्‍णे ! आज मुझे भी कोई ऐसा व्रत, तप, स्‍नान, मन्‍त्र, औषध, विद्या-शक्ति,मूल-शक्ति ( जड़ी-बूटीका प्रभाव ) जप, होम या दवा बताओ, जो यश और सौभाग्‍य की वृद्धि करनेवाला हो तथा जिससे श्‍यामसुन्‍दर सदा मेरे अधीन रहें’ । ऐसा कहकर यशस्विनी सत्‍यभामा चुप हो गयी । तब पतिपरायणा महाभागा द्रौपदीने उसे इस प्रकार उत्‍तर दिया- ‘सत्‍ये ! तुम मुझसे जिसके विषय में पूछ रही हो, वह साध्‍वी स्त्रियों का नही, दुराचारिणी और कुलटा स्त्रियोंका आचरण है । जिस मार्गका दुराचारिणी स्त्रियोंने अवलम्‍बन किया है, उसके विषयमें हम लोग कोई चर्चा कैसे कर सकती हैं ? ‘इस प्रकारका प्रश्र अथवा स्‍वामीके स्‍नेहमें सन्‍देह करना तुम्‍हारे-जैसी साध्‍वी स्‍त्रीके लिये कदापि उचित नहीं है; चूंकि तुम बुद्धिमती होने के साथ ही श्‍यामसुन्‍दरकी प्रियतमा पटरानी हो । ‘जब पतिको यह मालूम हो जाय कि उसकी पत्‍नी उसे वशमें करनेके लिये किसी मन्‍त्र-तन्‍त्र अथवा जडी-बूटीका प्रयोग कर रही है, तो वह उससे उसी प्रकार उद्विग्‍न हो उठता है, जैसे अपने घरमें घुसे हुए सर्पसे लोग शंकित रहते हैं । ‘उदिग्‍नको शान्ति कैसी ? और अशान्‍त को सुख कहां ? अत: मन्‍त्र-तन्‍त्र करनेसे पति अपनी पत्‍नीके वशमें कदापि नही हो सकता । ‘इसके सिवा, ऐसे अवसरोंपर धोखेसे शत्रुओंद्वारा भेजी हुई ओषधियोंको खिलाकर कितनी ही स्त्रियां अपने पतियोंको अत्‍यन्‍त भंयकर रोगोंका शिकार बना देती हैं । किसीको मारनेकी इच्‍छावाले मनुष्‍य उसकी स्‍त्री के हाथमें यह प्रचार करते हुए विष दे देते हैं कि ‘यह पति को वशमें करने वाली जड़ी बूटी है’ । ‘उनके दिये हुए चूर्ण ऐसे होते हैं कि उन्‍हें पति यदि जिहृा अथवा त्‍वचासे भी स्‍पर्श कर ले, तो वे नि:सन्‍देह उसी क्षण उसके प्राण ले लें । कितनी ही स्त्रियों ने अपने पतियोंको ( वशमें करनेकी आशासे हानिकारक दवाएं खिलाकर उन्‍हें ) जलोदर और कोढका रोगी, असमयमें ही वृद्ध, नपुंसक, अंधा, गूंगा और बहरा बना दिया है । इस प्रकार पापियोंका अनुसरण करने वाली वे पापिनी स्त्रियां अपने पतियोंको अनेक प्रकारकी विपत्तियोंमें डाल देती हैं । अत: साध्‍वी स्‍त्री को चाहिये कि वह कभी किसी प्रकार भी पतिका अप्रिय न करे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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