महाभारत वन पर्व अध्याय 83 श्लोक 196-208
त्र्यशीतितम (83) अध्याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)
भलीभांति सम्पन्न किये हुए सहस्त्र अश्वमेध यज्ञों का जो फल होता है, उसी मनुष्य उस तीर्थ में स्नानमात्र करके अथवा श्राद्ध करके पा लेता है। स्त्री या पुरूष ने जो कुछ भी दुष्कर्म किया हो, वह सब वहां स्नान करनेमात्र से नष्ट हो जाता है; इसमें संशय नहीं है। वह पुरूष कमल के समान रंगवाले विमानद्वारा ब्रह्मलोक में जाता है। तदनन्तर मचक्रुक नामक द्वारपाल यक्ष को प्रणाम करके कोटितीर्थ में स्नान करने से मनुष्य को प्रचुर सुवर्णराशि की प्राप्ति होती है। धर्मज्ञ भरतश्रेष्ठ ! वहीं गंगाह्रद नामक तीर्थ है, उसमें ब्रह्मचर्य पालनपर्वूक एकाग्रचित्त करे, इससे मनुष्य को राजसूय और अश्वमेध यज्ञों द्वारा मिलने वाले फल की प्राप्ति होती है। भूण्डल के निवासियों के लिये नैमिष, अंतरिक्ष निवारियों के लिये पुष्कर और तीनों लोकों के निवासिायों के लिये कुरूक्षेत्र विशिष्टि तीर्थ हैं। कुरूक्षेत्र से वायुद्वारा उड़ायी हुई धूल भी पापल से पापी मनुष्य पर पड़ जाय तो उसे परमगति को पहुंचा देती है। सरस्वती से दक्षिण, दृषद्वती से उत्तर कुरूक्षेत्र में जो लोग निवास करते हैं, वे मानों स्वर्गलोक में बसते हैं। ‘मैं कुरूक्षेत्र में जाऊंगा, कुरूक्षेत्र में निवास करूंगा, ऐसी बात एक बार मुंह से कह देने पर भी मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। कुरूक्षेत्र ब्रह्माजी की वेदी है, इस पुण्यक्षेत्र का ब्रह्मर्षिगण सेवन करते हैं। जो मानव उसमें निवसा करते हैं, वे किसी प्रकार शोकजनक अवस्था में नहीं पड़ते। तरन्तुक और अरन्तुक के तथा रामह्रद और मचक्रुकक के बीच का जो भूभाग है, वहीं कुरूक्षेत्र एवं समन्तपंचक है। इसे ब्रह्माजी की उत्तरवेदी कहते हैं।
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