महाभारत वन पर्व अध्याय 89 श्लोक 1-18

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एकोननवतितम (87) अध्‍याय: वन पर्व (तीर्थयात्रा पर्व)

महाभारत: वन पर्व: एकोननवतितम अध्याय: श्लोक 1-18 का हिन्दी अनुवाद

धौम्यद्वारा पश्चिम दिशा में तीर्थों का वर्णन

धौम्यजी कहते हैं-युधिष्ठिर ! अब मैं पश्चिम दिशा के आनर्तदेश में जो-जो पवित्र तीर्थ और पुण्यस्वरूप देवालय हैं, उन सबका वर्णन करूंगा। भरतनन्दन ! पश्चिम दिशा में पुण्यमयी नर्मदा नदी प्रवाहित होती है, जिसकी धारा पूर्व से पश्चिम की ओर है। उसके तटपर प्रियंक्षु और आम के वृक्ष का वन है। बेंत तथा फलवाले वृक्षों की श्रेणियां भी उसकी शोभा बढ़ाती हैं। भरतनन्दन कुरूक्षेत्र ! त्रिलोकी में जो-जो पुण्यतीर्थ, मंदिर, नदी, वन, पर्वत ब्रह्म आदि देवता, सिद्ध, ऋषि, चारण एवं पुण्यात्माओं के समूह हैं, वे सब सदा नर्मदा के जल में स्नान करने के लिये आया करते हैं। वहीं मुनिवर विश्रवा का पवित्र आश्रम सुना जाता है, जहां पर वाहन धनाध्यक्ष कुबेर का जन्म हुआ था। वैदूर्यशिखरनामक मंगलमय पवित्र पर्वत भी नर्मदा तटपर है, वहां हरे-हरे पत्तों से सुशोभित सदा फल और फूलों के भार से लदे हुए वृक्ष शोभा पाते हैं। राजन् ! उस पर्व के शिखर पर पुण्य सरोवर है, जिसमें सदा कमल खिलते हैं। महाराज! देवता और गन्धर्व भी उस पुण्यतीर्थ का सेवन करते हैं। राजन् ! देवर्षिगणों से सेवित वह पुण्यपर्वत स्वर्ग के समान सुन्दर एवं सुखद है। वहां अनेक आश्चर्य की बातें देखी जाती हैं। शत्रुओं की राजधानी पर विजय पानेवाले नरेश ! वहां राजर्षि विश्वामित्र की तपस्या से प्रकट हुए एक पुण्यमयी नदी है, जो परम पवित्र तीर्थ मानी गयी है। उसी के तटपर नहुष नन्दन राजा ययाति स्वर्ग से साधु पुरूषों के बीच में गिरे थे। और पुनः सनातन धर्ममय लोकों में चले गये थे। वहां पुण्यसरोवर, विख्यात मैनाक पर्वत और प्रचुर फल मूलों से सम्पन्न असित नामक पर्वत है। युधिष्ठिर ! उसी पर्वत पर कच्छसेन का पुण्यदायक आश्रम है। पाण्डुनन्दन ! महर्षि च्यवन का सुविख्यात आश्रम भी वहीं है। प्रभो ! वहां थोड़ी ही तपस्या से मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं। महाराज ! पश्चिम दिशा में ही जम्बूमार्ग है, जहां शुद्ध अन्तःकरण वाले महर्षियों का आश्रम है। शांत पुरूषों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर ! वह आश्रम पशु पक्षियों से सेवित है। राजन् ! उधर ही सदा तपस्वी जाने से भरे हुए पुण्यतम तीर्थ-केतुमाला, मेध्या और गंगाद्वार (हरिद्वार) हैं। भूपाल ! द्विजों से सेवित सुप्रसिद्ध सैन्धवारण्य भी उधर ही है। ब्रह्मजी का पुण्यदायक सरोवर पुष्कर भी पश्चिम दिशा में ही है, जो वानप्रस्थों, सिद्धों और महर्षियों का प्रिय आश्रय है। ‘जो मनस्वी पुरूष मन से भी पुष्कर तीर्थ में निवास करने की इच्छा करता है, उसके सारे पाप नष्ट हो जाते हैं और वह स्वर्गलोक में आनंद भोगता है’।

इस प्रकार श्रीमहाभारत वनपर्व के अन्तर्गत तीर्थयात्रा पर्व में धौम्यतीर्थयात्राविषयक नवासीवां अध्याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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