महाभारत विराट पर्व अध्याय 12 श्लोक 1-13
द्वादशम (12) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
नकुल का विराट के अश्वों की देखरेख में नियुक्त होना
वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! तदनन्तर अन्य पाण्डुपुत्र शक्तिशाली नकुल बड़े वेग से चलते हुए राजा विराट के यहाँ ओयं। उन्हें आते समय साधारण लोगों ने देखा; उस समय वे मेघमाला की ओट से निकले हुए सूर्यमण्डल के समान तेजस्वी जान पड़ते थे।आते ही उन्होंने इधर-उधर घूमकर घोड़ों को देखना प्रारम्भ किया। इस प्रकार उन अश्वो का निरीक्षण करते समय उन्हें मत्स्यराज विराट ने देखा। तब नरेश वहाँ बैठे हुए अनुचरो से बोले- ‘पता तो लगाओ यह देवोपम पुरुष कहाँ से आ रहा है ? यब बिना कहे-सुने स्वयं मेरे घोड़ों को बहुत ध्यान से देख रहा है; अतः यह अवश्य घोड़ों को पहचानने वाला और अश्वविद्या का विद्वान् होगा। इसलिये इसे शेघ्र मेरे समीप ले आओ। यह वीर देवताओं की भाँति सुशोभित हो सहा है’। तत्पश्चात् राजसेवकों के साथ राजा के समीप आकर शत्रुहन्ता नकुल ने कहा- ‘राजन् ! आपकी जय हो। आपका कल्याण हो। मैं घोड़ों को शिक्षा देने में निपुण हुँ और अनेक राजाओं से सम्मानित हूँ। मैं सदा आपके घोड़ों का चतुर सारथि हो सकता हूँ।विराट ने कहा- भद्र पुरुष ! मैं तुम्हें सवारी, धन और रहने के लिये घर देता हूँ। तुम मेरे घोड़ों को शिक्षा देने वाले सारथि हो सकते हो, किन्तु मैं पहले यह जानना चाहता हूँ कि तुम कहाँ से आये हो ? किसके पुत्र हो और किसलिये तुम्हारा यहाँ आगमन हुआ है ? तुममें जो कला-कौशल हो, उसे भी बताओ। नकुल बोले- शत्रुदमन ! सुनिये, पाँचों पाँडवों में जो बड़े भ्राता युधिष्ठिर हें, उन्होंने पहले मुझे घोड़ों की देखभात के काम पर लगा रक्खा था। मैं घोड़ों की जाति पहचानता हूँ एवं उन्हें सब प्रकार की शिक्षा देने की कला भी जानता हूँ। दुष्ट घोड़ों की दुष्टता-निवारण का ढंग भी मुझे मालूम है तथा घोड़ों की चिकित्सा भी मैं पूर्णरूप से जानता हूँ। मेरा सिखाया हुआ घोड़ा कभी कायर नहीं हो सकता। मेरी सिखायी हुई घोड़ी में भी कोई ऐब नहीं आता, फिर घोडत्रे मो बिगड़ ही कैसे सकते हैं ? मुझे साधारण लोग तथा पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर भी -ग्रन्थिक’ नाम से ही पुकारा करते थे। जैसे देवराज इन्द्र के सारथि मातलि हैं, जैसे राजा दशरथ के रथ चालक सुमन्त्र हें और जैसे जमदग्निनन्दन परशुराम के सूत सुमह हैं, उसी प्रकार मैं आपका सारथि होकर आपके घोड़ों को शिक्षा दूँगा। राजेन्द्र ! मैं महाराज युधिष्ठिर आदेश से उनके यहाँ लक्षकोटि के अयवों का संरक्षक रहा हूँ। विराट ने कहा- ग्रन्थिक ! मेरे पास जो भी घोड़े और अन्य वाहन हैं, वे सब आज से ही तुमहारे अधीन हो जायँ। इसके सिवा जो भी मेरे घोड़ों को जोतने वाले सारथि हैं, वे सब तुम्हारे अधिकार में रहें। देवोपम पुरुष ! यदि यही कार्य तुम्हें प्रिय है, तो बताओ, इसके लिये वेतनरूप से कितना धन लने का तुमने विचार किया है ? यह घोड़ों की शिक्षा का कार्य तुम्हारे अनुरूप नहीं है। तुम तो राजा की भाँति शोभा पा रहे हो और मुझे भी अत्यन्त प्रिय लगते हो। आज मुझे तुम्हारा जो यहाँ दर्यान हुआ है, यह राजा युधिष्ठिर के दर्शन के समान मुझे अत्यन्त पिे्रय है। अहो ! सर्वथा प्रशंसा के योग्य पाण्डुनन्दन महाराज युधिष्ठिर सेवकों के बिना वन में कैसे रहते होंगे और कैसे उनका मन वहाँ लगता होगा ? वैशम्पायनजी कहते हैं - राजन् ! इस प्रकार प्रसन्न हुए राजा विराट के द्वारा सम्मानित हो श्रेष्ठ गन्धर्व के सदृश शोभा पाने वाले युवावस्था सम्पन्न नकुल वहाँ रहने लगे। उनका स्वरूप बड़ा ही प्रिय और नयनाभिराम था। वे नगर के भीतर विचरते रहते थे, तो भी उन्हें राजा तथा अन्य मनुष्य किसी प्रकार पहचान न सके। जिनका दर्शन अमोघ है, वे पाण्डवगण इस प्रकार अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार म्त्स्यदेश में रहने और एकाग्रतापूर्वक अज्ञातवास का समय व्यतीत करने लगे। वे सागर से घिरी हुई पृथ्वी के अधिपति होकर भी अत्यन्त कष्ट उठा रहे थे।
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