महाभारत विराट पर्व अध्याय 2 श्लोक 15-32
द्वितीय (2) अध्याय: विराट पर्व (पाण्डवप्रवेश पर्व)
जैसे तपने वाले तेजस्वी पदर्थों में सूर्य श्रेष्ठ है, मनुष्यों में ब्राह्मण का स्थान ऊँचा है, जैसे सर्पों में आशीविष जाति वाले सर्प महान् हैं, तेजस्वियों में अग्नि श्रेष्ठ है, अस्त्र-शस्त्रों में वज्र का स्थान ऊँचा है, गौओं में ऊँचे कंधे वाला साँड़ बड़ा माना गया है, जलाशयों में समुद्र सबसे महान् है, वर्षा करने वाले मेघों में पर्जन्य श्रेष्ठ है, नागों में धृतराष्ट्र तथा हाथियों में ऐरावत बड़ा है, जैसे प्रिय सम्बन्धियों में पुत्र सबसे अधिक प्रिय है और अकारण हित चाहने वाले सुहृदों में धर्म पत्नी सबसे बढ़कर है, जैसे पर्वतों में मेरु पर्वत श्रेष्ठ है, देवताओं में मधुसूदन भगवान विष्णु श्रेष्ठ हैं, ग्रहों में चन्द्रमा श्रेष्ठ है और सरोवरों में मानसरोवर श्रेष्ठ है। भीमसेन ! अपनी-अपनी जाति में जिस प्रकार ये पूर्वोक्त वस्तुएँ विशिष्ट मानी गई हैं, वैसे ही सम्पूर्ण धनुर्घारियों में युवावस्था से सम्पनन यह गुडाकेश (निद्राविजयी) अर्जुन श्रेष्ठ है। यह देवराज इन्द्र और भगवान श्रीकृष्ण से किसी बात में कम नहीं है। श्वेत घोड़ों वाले रथ पर चलने वाला यह महा तेजस्वी गाण्डीवधारी बीभत्सु (अर्जुन) वहाँ कौन सा कार्य करेगा ? इसने पाँच वर्षों तक देवराज इन्द्र के भवन में रहकर ऐसे दिव्यास्त्र प्राप्त किये हैं, जिनका मनुष्यों में होना एक अद्भुत सी बात है। अपने देवोपम स्वरूप से प्रकाशित होने वाले अर्जुन ने अनेक दिव्यास्त्र पाये हैं। जिस अर्जुन को मैं बारहवाँ रुद्र और तेरहवाँ आदित्य मानता हूँ, नवम वसु तथा दसवाँ ग्रह स्वीकार करता हूँ। जिसकी दोनों भुजाएँ एक-सी विशाल हैं; प्रत्यक्ष के आघात से उनकी त्वचा कठोर हो गयी है। जैसे बैलों के कंधों पर जुआइे की रगड़ से चिन्ह बन जाता है, उसी प्रकार जिसकी दाहिनी और बायीं भुजाओं पर प्रत्यंचा की रगड़ से चिन्ह बन गये हैं। जैसे पर्वतों में हिमालय, सरिताओं में समुद्र, देवताओं में इन्द्र, वसुओं में हव्यवाहक अग्नि, मृगों में सिंह तथा पक्षियों में गरुड़ श्रेष्ठ है, उसी प्रकार कवचधारी वीरों में जिसका स्थान सबसे ऊँचा है, वह अर्जुन विराटनगर में जाकर क्या काम करेगा ? अर्जुन ने कहा- महाराज ! मैं राजा की सभा में यह दृढ़ता पूर्वक कहूँगा कि मैं षण्डक (नपुंसक) हूँ। राजन् ! यद्यपि मेरी दायीं-बायीं भुजाओं में धनुष की डोरी की रगड़ से जो महान् चिन्ह बन गये हैं, उन्हें छिपाना बहुत कठिन है तथापि कंगन आदि आभूषणों से मैं इन ज्याघात चिन्हित भुजाओं का ढक लूँगा। मैं दोनों कानों में अग्नि के समान कान्तिमान् कुण्डल पहनकर हाथों मे शंख की चूडि़याँ धारण कर लूँगा। इस प्रकार तीसरी प्रकृति (नपुंसकभाव) को अपनाकर सिर पर चोटी गूँथ लूँगा और अपने को बृहन्नला नाम से घोषित करूँगा। स्त्रीभाव से अपने स्वरूप को छिपाकर बारंबार पूर्ववर्ती राजाओं का गान करके महाराज विराट तथा अन्तःपुर की अन्यान्य स्त्रियों का मनोरंजन करूँगा। राजन् ! मै विराटनगर की स्त्रियों को गीत गाने, विचित्र ढंग से नृत्य करने तथा भाँति-भाँति के बाजे बजाने की शिक्षा दूँगा। कुन्तीनन्दन ! प्रजाजनों के उत्त्म आचार-विचार और उनके किये हुए अनेक प्रकार के सत्कर्मों का वर्णन करता हूआ मैं मायामय नपुसक वेश से बुद्धि द्वारा अपने यथार्थ रूप को छिपाये रक्खूँगा। पाण्डुनन्दन ! यदि राजा विराट ने मेरा परिचय पूछा तो मैं कह दूँगा मैं महाराज युधिष्ठिर के घर में महारानी द्रौपदी की परिचारिका रह चुकी हूँ। राजेनद्र ! इस प्रकार कृत्रिम वेशभूषा से राख में छिपी हुई अग्नि के समान अपने आप को छिपाकर में विराट के महल में सुख पूर्वक निवास करूँगा।
इस प्रकार श्रीमहाभारत विराटपर्व के अन्तर्गत पाण्डव प्रवेशपर्व में युधिष्ठिर आदि की मन्त्रणा विषयक दूसरा अध्याय पूरा हुआ।
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