महाभारत विराट पर्व अध्याय 37 श्लोक 14-33
सप्तत्रिंश (37) अध्याय: विराट पर्व (गोहरण पर्व)
सुन्दर कटिप्रदेया वाली उत्तरा के ऐसा कहने पर शत्रुओं को संताप देने वाले अर्जुन अमित पराक्रमी राजकुमार उत्तर के समीप गये। मद टपकाने वाले गजराज की भाँति याीघ्रतापूर्वक आते हुए अर्जुन के पीछे-पीछे विशाल नेत्रों वाली उत्तरा भी आयी; ठीक उसी तरह, जैसे हथिनी हाथी के पीछे-पीछे जाती है। राजकुमार उत्तर ने बृहन्नला को दूर से ही देखकर इस प्रकार कहा- ‘बृहन्नले ! तुम अर्जुन की ही भाँति मेरे घोड़ों को भी काबू में रखना, क्योंकि मैं अपना गोधन वापस लाने के लिये कौरवों के साथ युद्ध करने वाला हूँ। ‘पहले तुम अर्जुन का प्रिय सारथि रह चुकी हो और तुम्हारी ही सहायता से उन पाण्डवयिारामणि ने समूची पृथ्वी पर विजय पायी है’। उसके ऐसा कहने पर बृहन्नला राकुमार से बाली- ‘भला, मेरी क्या शक्ति है कि मैं युद्ध के मुहाने पर सारथि का काम सँभाल सकूँ ? ‘राजकुमार ! आपका कल्याण हो । यदि गाना हो, नृत्य करना हो अथवा विभिन्न प्रकार के बाजे बजाने हों, तो वह कर लूँगी। सारथि क कान मुझसे कैसे हो सकता है ?’। उत्तर बोला- बृहन्नले तुम पुनः लौटकर गायक या नर्तक जो चाहो, बन जाना। इस समय तो शीघ्र ही मेरे रथ पर बैठकर श्रेष्ठ घोड़ों को काबू में करो। वैशम्पायन कहते हैं- जनमेजय ! शत्रुओं का दमन करने वाले पाण्डुनन्दन ने सब कुद जानते हुए भी उत्तर के सामने हँसी के लिये बहुत अनभिज्ञतासूचक कार्य किया। बृहन्नला को (कवच धारण के समय) भूल करती देख राजकुमार उत्तर ने स्वयं ही उसे बहुमूल्य कवच धारण कराया । फिर उसने स्वयं भी सूर्य के समान कान्तिमान् सुन्दर कवच धारण किया और रथ पर सिंहध्वज फहराकर बृहन्नला को सारथि के कार्य में नियुक्त कर दिया। तदन्न्तर बहुत से बहुमूल्य धनुष और सुन्दर बाण लेकर वीर उत्तर बुहन्नला सारथि के साथ युद्ध करने के लिये प्रस्थित हुआ। उस समय उत्तरा और उसकी सखी रूपा दूसरी राजकन्याओं ने कहा- ‘बृहन्नले ! तुम युद्धभूमि में आये हुए भीष्म, द्रोण आदि प्रमुख कौरव वीरों को जीतकर हमारी गुडि़यों के लिये उनके महीन, कोमल और विचित्र रंग के वस्त्र ले आना’। ऐसा कहती हुई उप सब कन्याओं से पाण्डुनन्दन अर्जुन ने हँसते हुए मेघ और दुन्दुभि के समान गम्भीर वाणी में कहा। बृहन्नला बोली- यदि ये राजकुमार उत्तर रणभूमि में उन महारथियों को परास्त कर देंगे, तो मैं अवश्य उनके दिव्य ओर सुन्दर वस्त्र ले आऊँगी। वैशम्पायन कहते हैं- जनमेजय ! ऐसा कहकर शूरवीर अर्जुन ने भाँति-भाँति की ध्वजा-पताकाओं से सुशोभित कौरवों की ओर जाने के लिये घोड़ों को हाँक दिया। बृहन्नला के साथ उत्तम रथ पद बैठे हुए महाबाहु उत्तर को जाते देख स्त्रियों, कन्याओं तथा उत्तम व्रत का पालन करने वाले ब्राह्मणों ने उसकी दक्षिणावर्त परिक्रमा की। तत्पश्चात् स्त्रियाँ और कन्याएँ बोली-
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