महाभारत शल्य पर्व अध्याय 54 श्लोक 21-38

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चतुष्पन्चाशत्तम (54) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)

महाभारत: शल्य पर्व: चतुष्पन्चाशत्तम अध्याय: श्लोक 21-38 का हिन्दी अनुवाद

वे उस स्थान पर गये, जहां तेजस्वी बलराम बैठै हुए थे। उन्होंने उठकर नियम और व्रत का पालन करने वाले देवर्षि का भली भांति पूजन करके उनसे कौरवों का समाचार पूछा । राजन् ! तब सम्पूर्ण धर्मो के ज्ञाता नारदजी ने उनसे यह सारा वृत्तान्त यथार्थ रूप से बता दिया कि कुरुकुल का अत्यन्त संहार हो गया है । तब रोहिणीनन्दन बलराम ने दीनवाणी में नारदजी से पूछा-‘तपोधन ! जो राजा लोग वहां अपस्थित हुए थे, उन सब क्षत्रियों की क्या अवस्था हुई है, यह सब तो मैंने पहले ही सुन लिया था। इस समय कुछ विशेष और विस्तृत समाचार जानने के लिये मेरे मन में अत्यन्त अत्सुकता हुई है’। नारदजी ने कहा-रोहिणीनन्दन ! भीष्मजी तो पहले ही मारे गये। फिर सिंधुराज जयद्रथ, द्रोण, वैकर्तन कर्ण तथा उसके महारथी पुत्र भी मारे गये हैं। भूरिश्रवा तथा पराक्रमी मद्रराज शल्य भी मार डाले गये । ये तथा और भी बहुत से महाबली राजा और राजकुमार जो युद्ध से पीछे हटने वाले नही थे, कुरुराज दुर्योधन की विजय के लिये अपने प्यारे प्राणों का परित्याग करके स्वर्गलोक में चले गये हैं । महाबाहु माधव ! जो वहां नही मारे गये हैं, उनके नाम भी मुझसे सुन लो। दुर्योधन की सेना में कृपाचार्य, कृतवर्मा और पराक्रमी द्रोणपुत्र अश्वत्थामा-ये शत्रुदल का मर्दन करने वाले तीन ही वीर शेष रह गये हैं । परंतु बलरामजी ! जब शल्य मारे गये, तब ये तीनों भी भय के मारे सम्पूर्ण दिशाओं में पलायन कर गये थे। शल्य के मारे जाने और कृप आदि के भाग जाने पर दुर्योधन बहुत दुखी हुआ और भागकर द्वैपायन सरोवर में जा छिपा । जब दुर्योधन जल को स्तम्भित करके उसके भीतर सो रहा था, उस समय पाण्डव लोग भगवान श्रीकृष्ण के साथ वहां आ पहुंचे और अपनी कठोर बातों से उसे कष्ट पहुंचाने लगे । बलराम ! जब सब ओर से कड़वी बातों द्वारा उसे व्यथित किया जाने लगा, तब वह बनवान् वीर विशाल गदा हाथ में लेकर सरोवर से उठ खड़ा हुआ । इस समय वह भीम के साथ युद्ध करने के लिये उनके पास जा पहुंचा है। राम ! आज उन दोनों में बड़ा भयंकर युद्ध होगा, माधव ! यदि तुम्हारे मन में भी उसे देखने का कौतूहल हो तो शीघ्र जाओ। यदि ठीक समझो तो अपने दोनों शिष्यों का वह महाभयंकर युद्ध अपनी आंखों से देख लो । वैशम्पायनजी कहते हैं-राजन् ! नारदजी की बात सुनकर बलरामजी ने अपने साथ आये हुए श्रेष्ठ ब्राह्मणों की पूजा करके उन्हें विदा कर दिया और सेवकों को आज्ञा दे दी कि तुम लोग द्वारका चले जाओ । फिर वे प्लक्षप्रस्त्रवण नामक शुभ पर्वत शिखर से नीचे उतर आये और तीर्थ सेवन का महान् फल सुनकर प्रसन्नचित्त हो अच्युत बलराम ने ब्राह्मणों के समीप इस श्लोक का गान किया- ‘सरस्वती नदी के वट पर निवास करने में जो सुख और आनन्द है, वह अन्यत्र कहां से मिल सकता है ? सरस्वती तट पर निवास करने में जो गुण हैं, वे अन्यत्र कहां हैं ? सरस्वती का सेवन करके स्वर्गलोक में पहुंचे हुए मनुष्य सदा सरस्वती नदी का स्मरण करते रहेंगे ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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