महाभारत शल्य पर्व अध्याय 61 श्लोक 48-63
एकषष्टितमअध्यायः (61) अध्याय: शल्य पर्व (गदा पर्व)
तुमने बृहस्पति और शुक्राचार्य के नीति संबंधी उपदेश को नहीं सुना है, बड़े-बूढों की उपासना नहीं की है और उनके हितकर वचन भी नहीं सुने हैं । तुमने अत्यन्त प्रबल लोभ और तृष्णा के वशीभूत होकर न करने योग्य कार्य किये हैं; अतः उनका परिणाम अब तुम्हीं भोगो । दुर्योधन ने कहा- मैंने विधिपूर्वक अध्ययन किया, दा दिये, समुद्रों सहित पृथ्वी का शासन किया और शत्रुओं के मस्तक पर पैर रखकर मैं ख़ड़ा रहा। मेरे समान उत्तम अन्त (परिणाम) किसका हुआ है । अपने धर्म पर दृष्टि रखने वाले क्षत्रिय-बन्धुओं को जो अभीष्ठ है, वही यह मृत्यु मुझे प्राप्त हुई है; अतः मुझसे अच्छा अन्त और किसका हुआ है। जो दूसरे राजाओं के लिये दुर्लभ हैं, वे देवताओं को ही सुलभ होने वाले मानव भोग मुझे प्राप्त हुए हैं। मैंने उत्तम ऐश्वर्य पा लिया है; अतः मुण्से उत्कृष्ट अन्त और किसका हुआ है ? । अच्युत ! मैं सुहृदों और सेवकों सहित सवर्ग लोक में जाउंगा और तुम लोग भग्नमनोरथ होकर शोचनीय जीवन बिताते रहोगे । भीमसेन ने अपने पैर से जो मेरे सिर पर आघात किया है, इसके लिये मुझे कोई खेद नहीं है; क्योंकि अभी क्षण भर के बाद कौए, कड-क अथवा गृघ्र भी तो इस शरीर पर अपना पैर रखेंगे । संजय कहते हैं- राजन! बुद्धिमान कुरूराज दुर्योधन की यह बात पूरी होते ही उसके ऊपर पवित्र सुगंधवाले पुष्पों की बड़ी भारी वर्षा होने लगी । गन्धर्वगण अत्यन्त मनोहर बाजे बजाने लगे और अप्सराएं राजा दुर्योधन के सुयश संबंधी गीत गाने लगी । राजन! उस समय सिद्धगण बोल उठे-बहुत अच्छा, बहुत अच्छा। फिर पवित्र गन्धवाली मनोहर, मृदुल एवं सुखदायक हवा चलने लगी। सारी दिशाओं में प्रकाश छा गया और आकाश नीलम के समान चमक उठा । श्रीकृष्ण आदि सब लोग ये अुत बातें और दुर्योधन की यह पूजा देखकर लज्जित हुए। भीष्म, द्रोण, कर्ण और भूरिश्रवा को अधर्मपूर्वक मारा गया सुनकर सब लोग शोक से व्याकुल हो खेद प्रकट करने लगे।पाण्डवों को दीनचित्त एवं चिन्तामग्न देख मेघ और दुनदुभिं के समान गम्भीर घोष करने वाले श्रीकृष्ण ने इस प्रकार कहा- । यह दुर्योधन अत्यन्त शीघ्रतापूर्वक अस्त्र चलाने वाला था, अतः इसे कोई जीत नहीं सकता था और वे भीष्म, द्रोण आदि महारथी भी बड़े पराक्रमी थे। उन्हें धर्मानुकूल सरलता पूर्वक युद्ध के द्वारा आप लोग नहीं मार सकते थे । यह राजा दुर्योधन अथवा वे भीष्म आदि सभी महाधनुर्धर महारथी कभी धर्मयुद्ध के द्वारा नहीं मारे जा सकते थे । आप लोगों का हित चाहते हुए मैंने ही बार बार माया का प्रयोग करके अनेक उपायों से युद्ध स्थल में उन सबका वध किया।
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