महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 124 श्लोक 21-40
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चतुविंशत्यधिकशततम(124) अध्याय: शान्ति पर्व (राजधर्मानुशासन पर्व)
तब महाबुद्धिमान् इन्द्र हाथ जोड़कर बृहस्पतिजी की सेवा में उपस्थित हुए और उनसे बोले-‘भगवन् ! मैं अपने कल्याण का उपाय जानना चाहता हूं। कुरुश्रेष्ठ ! तब भगवान् बृहस्पति नेउन देवेन्द्र को कल्याणकारी परम ज्ञान का उपदेश दिय। तत्पश्चात् इतना ही श्रेय (कल्याण का उपाय) हैं, ऐसा बृहस्पति ने कहा। तब इन्द्र ने फिर पूछा-‘इससे विशेष वस्तु क्या है?
बृहस्पति ने कहा-तात ! सुरश्रेष्ठ ! इससे भी विशेष महत्वपूर्ण वस्तु का ज्ञान महात्मा शुक्राचार्य को हैं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम उन्हीं के पास जाकर पुन: उस वस्तु का ज्ञान प्राप्त करो। तब परम तेजस्वी महातपस्वी इन्द्र ने प्रसन्नतापूर्वक शुक्राचार्य से पुन: अपने लिये श्रेय का ज्ञान प्राप्त किया। महात्मा भार्गव ने जब उन्हें उपदेश दे दिया, तब इन्द्र ने पुन: शुक्राचार्च सेपूछा- ‘क्या इससे भी विशेष श्रेय है? तब सर्वज्ञ शुक्राचार्य ने कहा- ‘महात्मा प्रह्लाद को इससे विशेष श्रेय का ज्ञानहै।‘यह सुनकर इन्द्र बड़े प्रसन्न हुए । तदनन्तर बुद्धिमान इन्द्र ब्राह्मण का रुप धारण करके प्रह्लाद के पास गये और बोले-‘राजन् ! मैं श्रेय जानना चाहता हूं’। प्रह्लाद ने ब्राह्मण से कहा- ‘द्विजश्रेष्ठ ! त्रिलोकी के राज्य की व्यवस्था में व्यस्त रहने के कारण मेरे पास समय नहीं हैं, अत: मैं आपको उपदेश नहीं दे सकूंगा’। यह सुनकर ब्रह्मण ने कहा-‘राजन् ! जब आपको अवसर मिले, उसी समय मैं आपसे सर्वोतम आचरणीय धर्म का उपदेश ग्रहण करना चाहता हूं’। ब्रह्मण की इसबात से राजा प्रह्लाद को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने ‘तथास्तु ‘ कहकर उसकी बात मान ली और शुभ समय में उसे ज्ञान का तत्व प्रदान किया।।ब्राह्मण भी उनके प्रति यथायोग्य परम उतम गुरु-भक्तिपूर्ण बर्ताव किया और उनके मन की रुचि के अनुसार सब प्रकार से उनकी सेवा की।
ब्रह्मण ने प्रह्लाद से बारंबार पूछा-‘धर्मज्ञ ! आपको यह त्रिलोकी का उतम राज्य कैसे प्राप्त हुआ? इसका कारण मुझे बताइये। महाराज ! तब प्रह्लाद भी ब्रह्मण से इस प्रकार बोले- प्रह्लाद ने कहा-विप्रवर ! ‘मैं राजा हूं ‘ इस अभिमान में आकर कभी ब्राह्मणों की निन्दा नहीं करता, बल्कि जब वे मुझे शुक्रनीति का उपदेश करते हैं, तब मैं संयमपूर्वक उनकी बातें सुनता हूंऔर उनकी आज्ञा शिरोधार्य करता हूं। वे ब्रह्मण विश्वस्त होकर मुझे नीति का उपदेश देते और सदा संयम में रखते हैं।मैं सदा ही यथाशक्ति शुक्राचार्य के बताये हुए नीतिमार्ग पर चलता, ब्रह्मणों की सेवा करता, किसी के दोष नहीं देखता और धर्म में मन किये रहता हूं। अत: जैसे मधु की मक्ख्यिां शहद के छते को फूलों के रस से सींचती रहती हैं, उसी प्रकार उपदेश देनेवाले ब्राह्मण मुझें शास्त्र के अमृतमय वचनों से सींचा करते हैं। मैं उनकी नीति-विद्याओं के रस का आस्वादन करता हूं और जैसे चन्द्रमा नक्षत्रों पर शासन करते हैं, उसी प्रकार मैं भी अपनी जातिवालों पर राज्य करता हूं।। ब्राह्मण के मुख में जो शुक्राचार्य का नीतिवाक्य है, यही इस भूतल पर अमृत हैं, यही सर्वोतम नेत्र हैं। राजा इसे सुनकर इसी के अनुसार बर्ताव करे। इतना ही श्रेय हैं, यह बात प्रह्लाद ने उस ब्रह्मवादी ब्रह्मण से कहा। इसके बाद भी उसके सेवा-शुश्रूषा करने पर दैत्यराज ने उससे यह बात कही- ‘द्विजश्रेष्ठ ! मैं तुम्हारे द्वारा की हुई यथोचित गुरुसेवा से बहुत प्रसन्न हूं। तुम्हारा कल्याण हो। तुम कोई वर मांगों। मैं उसे दूंगा। इसमें संशय नही हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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