महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 135 श्लोक 17-26
पञ्चत्रिंशदधिकशततम (135) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
देखो, ब्राह्मण लोग कुपित होकर जिसके पराभव का चिन्तन करने लगते हैं, उसका तीनों लोकों में कोई रक्षक नहीं होता। जो ब्राह्मणों की निन्दा करता है और उनका विनाश चाहता है, जैसे सूर्योदय होने पर अन्धकार का नाश हो जाता है, उसी प्रकार अवश्य ही पतन हो जाता है। तुम लोग यही बैठे–बैठे लुटेरे पन का जो फल है, उसे पाने की अभिलाषा रखो। जो-जो व्यापारी हमें स्वेच्छा से धन नहीं देंगे, उन्हीं–उन्हींपर तुम दल बॉधकर आक्रमण करोगे। दण्डका विधान दुष्टों के दमन के लिये है , अपना धन बढा़नें के लिए नहीं। जो शिष्ट पुरूषों को सताते हैं, उनका वध ही उनके लिये दण्ड माना गया है। जो लोग राष्ट्र को हानि पहुंचाकर अपनी उन्नति के लिये प्रयत्न करते हैं, वे मुर्दों में पडे़ हुए कीड़ों के समान उसी क्षण नष्ट हो जाते हैं। जो दस्युजाति में उत्पन्न होकर भी धर्मशास्त्र के अनुसार आचरण करते हैं, वे लुटेरे होने पर भी शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं (ये सब बातें तुम्हें स्वीकार हो तो मैं तुम्हारा सरदार बन सकता हूं )। भीष्मजी कहते हैं-राजन्! यह सुनकर उन दस्युओं ने कायव्य की सारी आज्ञा मान ली और सदा उसका अनुसरण किया। इससे उन सभी की उन्नति हुई और वे पाप-कर्मों से हट गये। कायव्य ने उस पुण्यकर्म से बड़ी भारी सिद्धि प्राप्त कर ली; क्योंकि उसने साधु पुरूषों का कल्याण करते हुए डाकुओं को पाप से बचा लिया था। जो प्रतिदिन कायव्य के इस चरित्र का चिन्तन करता है, उसे वनवासी प्राणियों से किंचिंतमात्र भी भय नहीं प्राप्त होता। भारत! उसे सम्पूर्ण भूतों से भी भय नहीं होता। राजन्! किसी दुष्टात्मा से भी उसको डर नही लगता। वह तो वन का अधिपति हो जाता है।
« पीछे | आगे » |