महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 143 श्लोक 19-33

अद्‌भुत भारत की खोज
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

त्रिचत्‍वारिंशदधिकशततम (143) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रिचत्‍वारिंशदधिकशततम अध्याय: श्लोक 19-33 का हिन्दी अनुवाद

आकाश में मेघों की घटाएं घिर आयीं, विघुन्‍मण्‍डल से उसकी अपुर्व शोभा होने लगी। जैसे समुद्र नौकारोहियोंके समुदाय से ढक जाता है, उसी प्रकार दो ही घडी़ में जल-धाराओं के समूह से आच्‍छादित हुए इन्‍द्रदेव ने व्‍योममण्‍डल में प्रवेश किया और क्षणभर में इस पृथ्‍वी को जलराशि से भर दिया। उस समय मूसलाधार पानी बरस रहा था। बहेलिया शीत से पीड़ित हो अचेत सा हो गया और व्‍याकुल हृदय से सारे वन में भटकने लगा। वन का मार्ग जिस पर वह चलता था, जल के प्रवाह में डूब गया था। उस बहेलिये को नीची-उंची भूमिका कुछ पता नहीं चलता था। वर्षो के वेग से बहुतेरे पक्षी मरकर धरती पर लोट गये थे। कितने ही अपने घोंसलों में छिपे बैठे थे। मृग, सिंह और सूअर स्‍थल-भूमिका आश्रय लेकर सो रहे थे। भारी आंधी और वर्षा से आंतकित हुए वनवासी जीव-जन्‍तु भय और भूख से पीड़ित हो झुंड-के-झुंड एक साथ घूम रहे थे। बहेलिये के सारे अंग सर्दी से ठिठुर गये थे। इसलिये न तो वह चल पाता था और न खडा़ ही हो पाता था। इसी अवस्‍था में उसने धरती पर गिरी हुई एक कबूतरी देखी, जो सर्दी के कष्‍ट से व्‍याकुल हो रही थी। वह पापात्‍मा व्‍याध यदयपि स्‍वयं भी बडे़ कष्‍ट में था तो भी उसने उस कबूतरी को उठाकर पिंजडे़ में डाल लिया। स्‍वयं दु:ख से पीड़ित होने पर भी उसने दूसरे प्राणीको दु:ख ही पहुंचाया। सदा पाप में ही प्रवृत रहने के कारण उस पापात्‍मा ने उस समय भी पाप ही किया। इतने में ही उसे वृक्षों के समूह में मेघ के समान सघन एवं नील एक विशाल वृक्ष दिखायी दिया, जिसपर बहुत से विहंग छाया, निवास और फलकी इच्‍छा से बसेरे लेते थे, मानो विधाता ने परोपकार के लिये ही उस साधुतुल्‍य महान् वृक्ष का निर्माण किया था । तदनन्‍तर एक ही क्षण आकाश के बादल फट गये, निर्मल तारे चमक उठे, मानो खिले हुए कुमुद-पुष्‍पों से सुशोभित जलवाला कोई विशाल सरोवर प्रकाशित हो रहा हो। प्रभो! ताराओं से भरा हुआ अत्‍यन्‍त निर्मल आकाश विकसित कुमुद–कुसुमों से सुशोभित सरोवर–सा प्रतीत होता था। आकाश को मेघों से मुक्‍त हुआ देख सर्दी से कांपते हुए उस व्‍याधने सम्‍पूर्ण दिशाओं की ओर दृष्टिपात किया और गाढे़ अन्‍धकार से भरी हुई रात्रि देखकर मन–ही–मन विचार किया कि मेरा निवास स्‍थान तो यहां से बहुत दूर है। इसके बाद उसने उस वृक्ष के नीचे ही रातभर रहने का निश्‍चय किया। फिर हाथ जोड़ प्रणाम करके उस वनस्‍पति से कहा-‘इस वृक्ष पर जो-जो देवता हो, उन सबकी मैं शरण लेता हॅू। ऐसा कहकर उसने पृथ्‍वी पर पते बिछा दिये और एक शिलापर सिर रखकर महान् दु:ख से घिरा हुआ वह बहेलिया वहां सो गया।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत आपद्धर्मपर्व में कपोत और व्‍याध के संवाद का उपक्रमविषयक एक सौ तैंतालिसवां अध्‍याय पूरा हुआ।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

साँचा:सम्पूर्ण महाभारत अभी निर्माणाधीन है।