महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 167 श्लोक 1-18
सप्तषष्टयधिकशततम (167) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
धर्म, अर्थ और काम के विषय में विदुर तथा पाण्डवों के पृथक–पृथक विचार तथा अन्त में युधिष्ठिर का निर्णय वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! यह कहकर जब भीष्म जी चुप हो गये, तब राजा युधिष्ठिर घर जाकर अपने चारों भाइयों तथा पांचवें विदुरजी से प्रश्न किया- ‘लोगों की प्रवृति प्राय: धर्म, अर्थ और काम की ओर होती है। इन तीनों में कौन सबसे श्रेष्ठ, कौन मध्यम और कौन लघु है?’ ‘इन तीनों पर विजय पाने के लिये विशेषत: किसमें मन लगाना चाहिये। आप सब लोग हर्ष और उत्साह के साथ इस प्रश्न का यथावत् रूप से उतर दें और वही बात कहें, जिस पर आपकी पूरी आस्था हो’। तब अर्थ की गति और तत्व को जानने वाले प्रतिभाशाली विदुर जी ने धर्मशास्त्र का स्मरण करके सबसे पहले कहना आरम्भ किया। विदुरजी ने बोले- राजन्! बहुत–से शास्त्रों का अनुशीलन, तपस्या, त्याग, श्रद्धा, यज्ञ कर्म, क्षमा, भावशुद्धि, दया, सत्य और संयम– ये सब आत्मा की सम्पत्ति हैं। युधिष्ठिर! तुम इन्हीं को प्राप्त करो। इनकी ओर से तुम्हारा मन विचलित नहीं होना चाहिये। धर्म और अर्थ की जड़ ये ही हैं। मेरे मत में ये ही परम पद हैं। धर्म से ही ॠषियों ने संसार–समुंद्र को पार किया है। धर्म पर ही सम्पूर्ण लोक टिके हुए हैं। धर्म से ही देवताओं की उन्नति हुई है और धर्म में ही अर्थ की भी स्थिति है। राजन्! धर्म ही श्रेष्ठ गुण है, अर्थ को मध्यम बताया जाता है और काम सबकी अपेक्षा लघु है; ऐसा मनीषी पुरूष कहते हैं। अत: मन को वश में करके धर्म को अपना प्रधान ध्येय बनाना चाहिये और सम्पूर्ण प्राणियों के साथ वैसा ही बर्ताव करना चाहिये, जैसा हम अपने लिये चाहते हैं। वैशम्पायन जी कहते हैं- जनमेजय! विदुर जी के बात समाप्त होने पर धर्म और अर्थ के तत्त्व को जानने वाले अर्थशास्त्रविशारद अर्जुन ने युधिष्ठिर की आज्ञा पाकर कहा। अर्जुन बोले- राजन्! यह कर्मभूमि है। यहां जीविका के साधन भूत कर्मों की ही प्रशंसा होती है। खेती, व्यापार, गोपालन तथा भांति–भांति के शिल्प- ये सब अर्थ प्राप्ति के साधन हैं। अर्थ ही समस्त कर्मों की मर्यादा के पालन में सहायक है। अर्थ के बिना धर्म और काम भी सिद्ध नहीं होते– ऐसा श्रुति का कथन है। धनवान् मनुष्य धन के द्वारा उत्तम धर्म का पालन और अजितेन्द्रिय पुरूषों के लिये दुर्लभ कामनाओं की प्राप्ति कर सकता है। श्रुति का कथन है कि धर्म और काम अर्थ के ही दो अवयव हैं। अर्थ की सि से उन दोनों की भी सिद्धि हो जायगी। जैसे सब प्राणी सदा ब्रह्माजी की उपासना करते हैं, उसी प्रकार उत्तम जाति के मनुष्य भी सदा धनवान् पुरूष की उपासना किया करते हैं। जटा और मृगचर्म धारण करने वाले जितेन्द्रिय संयतचित्त शरीर में पंक धारण किये मुण्डितमस्तक नैष्ठिक ब्रह्मचारी भी अर्थ की अभिलाषा रखकर पृथक्–पृथक् निवास करते हैं। सब प्रकार के संग्रह से रहित, संकोचशील, शान्त, गेरूआ वस्त्रधारी, दाढी़– मूंछ बढा़ये विद्वान् पुरूष भी धन की अभिलाषा करते देखे गये हैं। कुछ दुसरे प्रकार के ऐसे लोग हैं जो स्वर्ग पाने की इच्छा रखते हैं; और कुल परम्परागत नियमों का पालन करते हुए अपने–अपने वर्ण तथा आश्रम के धर्मों का अनुष्ठान कर रहे हैं; किंतु वे भी धन की इच्छा रखते हैं।
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