महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 167 श्लोक 34-44
सप्तषष्टयधिकशततम (167) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)
सभी प्राणी कामना रखते हैं। उससे भिन्न कामना-रहित प्राणी कहीं है, न कभी था और न भविष्य में होगा ही; अत: यह काम ही त्रिवर्ग का सार है। महाराज! धर्म और अर्थ भी इसी में स्थित हैं। जैसे दही का सार माखन है, उसी प्रकार धर्म और अर्थ का सार काम है। जैसे खली से श्रेष्ठ तेल है, तक्र से श्रेष्ठ घी है और वृक्ष के काष्ठ से श्रेष्ठ उसका फूल और फल है, उसी प्रकार धर्म और अर्थ दोनों से श्रेष्ठ काम है। जैसे फूल से उसका मधु–तुल्य रस श्रेष्ठ है, उसी प्रकार धर्म और अर्थ से काम श्रेष्ठ माना गया है। काम धर्म और अर्थ का कारण है, अत: वह धर्म और अर्थ रूप है। बिना किसी कामना के ब्रह्मण अच्छे अन्न का भी भोजन नहीं करते और बिना कामना के कोई ब्राह्मणों को धन का दान नहीं करते हैं। जगत् के प्राणियों को जो नाना प्रकार की चेष्टा होती है वह बिना कामना के नहीं होती; अत: त्रिवर्ग में काम का ही प्रथम एवं प्रधान स्थान देखा गया है। अत: राजन! आप काम का अवलम्बन करके सुन्दर वेषवाली, आभूषणों से विभूषित तथा देखने में मनोहर एवं मदमत्त युवतियों के साथ विहार कीजिये। हम लोगों को इस जगत् में काम को ही श्रेष्ठ मानना चाहिये। धर्मपुत्र! मैंने गहराई में पैठकर ऐसा निश्चय किया है। मेरे इस कथन में आपको कोई अन्यथा कोई अन्यथा विचार नहीं करना चाहिये। मेरा यह वचन उत्तम, कोमल, श्रेष्ठ, तुच्छतारहित एवं सारभूत है; अत: श्रेष्ठ पुरूष भी इसे स्वीकार कर सकते हैं। मेरे विचार से धर्म, अर्थ और काम तीनों का एक साथ ही सेवन करना चाहिये। जो इनमें से एक का ही भक्त है, वह मनुष्य अधम है, जो दो के सेवन में निपुण है, उसे मध्यम श्रेणी का बताया गया है और जो त्रिवर्ग में समान रूप से अनुरक्त है, वह मनुष्य उत्तम है। बुद्धिमान्, सुहृद, चन्दनसार से चर्चित तथा विचित्र मालाओं और आभूषणों से विभूषित भीमसेन उन वीर बन्धुओं से संक्षेप और विस्तारपूर्वक पूर्वोक्त वचन कहकर चुप हो गये। जिन्होनें महात्माओं के मुख से धर्म का उपदेश सुना है, उन धर्मात्माओं में श्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने दो घडी़ तक पूर्व वक्ताओं के वचनों पर भली भांति विचार करके मुसकराते हुए यह यथार्थ बात कही। युधिष्ठिर बोले- बन्धुओं! इसमें संदेह नहीं कि आप लोग धर्मशास्त्रों के सिद्धान्तों पर विचार करके एक निश्चय पर पहूंच चुके हैं। आप लोगों को प्रमाणों का भी ज्ञान प्राप्त है। मैं सबके विचार जानना चाहता था, इसलिये मेरे सामने यहां आप लोगों ने जो अपना–अपना निश्चित सिद्धान्त बताया है, वह सब मैंने ध्यान से सुना है। अब आप, मैं जो कुछ कह रहा हूं, मेरी उस बात को भी अनन्यचित्त होकर अवश्य सुनिये। जो न पाप में लगा हो और न पुण्य में, न तो अर्थोपार्जन में तत्पर हो न धर्म में, न काम में ही। वह सब प्रकार के दोषों से रहित मनुष्य दु:ख और सुख को देने वाली सिद्धियों से सदा के लिये मुक्त हो जाता है, उस समय मिट्टी के ढेले और सोने में उसका समान भाव हो जाता है।
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