महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 168 श्लोक 20-37

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अष्‍टषष्‍टयधिकशेततम (168) अध्याय: शान्ति पर्व (आपद्धर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: अष्‍टषष्‍टयधिकशेततम अध्याय: श्लोक 20-37 का हिन्दी अनुवाद

प्रभो! जो अपनी शक्ति के अनुसार कर्तव्‍य का ठीक–ठीक पालन करते और संतुष्‍ठ रहते है, जिन्‍हें बेमौके क्रोध नहीं आता, जो अकस्‍मात् स्‍नेह का त्‍याग नहीं करते, जो उदासीन हो जाने पर भी मन से कभी बुराई नहीं चाहते, अर्थ के तत्त्‍व को समझते हैं और अपने को कष्‍ट में डालकर भी हितैषी पुरूषों का कार्य सिद्ध करते हैं। जैसे रंगा हुआ ऊनी कपड़ा अपने रंग नहीं छोड़ता, उसी प्रकार जो मित्र की ओर से विरक्‍त नहीं होते हैं, जो क्रोधवश मित्र का अनर्थ करने में प्रवृत्त नहीं होते हैं तथा लोभ और मोह के वशीभूत हो मित्र की युवतियों अपनी आसक्ति नहीं दिखाते, जो मित्र के विश्‍वासपात्र और धर्म के प्रति अनुरक्‍त हैं, जिनकी दृष्टि में मिट्टी का ढेला और सोना दोनों एक–से हैं, जो सदा सुहृदों के प्रति सुस्‍थिर बुद्धि रखने वाले हैं, सबके लिये प्रमाण भूत शास्‍त्रों के अनुसार चलते हैं और प्रारब्‍धवश प्राप्‍त हुए धन में ही संतुष्‍ट रहते हैं, जो कुटुम्‍ब का संग्रह रखते हुए सदा अपने सुहृद एवं स्‍वामी के कार्य–साधन में तत्‍पर रहते हैं- ऐसे श्रेष्‍ठ पुरूषों के साथ जो राजा संधि (मेल) करता है, उसका राज्‍य उसी तरह बढ़ता है, जैसे चन्‍द्रमा की चांदनी। जो प्रतिदिन शास्‍त्रों का स्‍वाध्‍याय करते हैं, क्रोध को काबू में रखते हैं और युद्ध में सदा प्रबल रहते हैं। जिनका उत्‍तम कुल में जन्‍म हुआ है, जो शीलवान और श्रेष्‍ठ गुणों से सम्‍पन्‍न हैं, वे श्रेष्ठ पुरूष ही मित्र बनाने के योग्‍य होते हैं। निष्‍पाप नरेश! मैंने जो दोषयुक्‍त मनुष्‍य बताये हैं, उन सब में अधम होते हैं कृतघ्‍न। वे मित्रों की हत्‍या तक कर डालते हैं । ऐसे दुराचारी नराधमों को दूर से ही त्‍याग देना चाहिये। यह सबका निश्‍चय है । युधिष्ठिर ने कहा- पितामह! आपने जिसे मित्रद्रोही और कृतघ्‍न कहा है, उसका यथा‍र्थ इतिहास क्‍या है? यह मैं विस्‍तारपूर्वक सुनना चाहता हूं, आप कृपा करके मुझे बताइये। भीष्‍मजी ने कहा- नरेश्‍वर! मैं प्रसन्‍नतापूर्वक तुम्‍हें एक पुराना इतिहास बता रहा हूं। यह घटना उत्तर दिशा में म्‍लेच्‍छों के देश में घटित हुई थी। मध्‍यदेश का एक ब्राह्मण, जिसने वेद बिलकुल नहीं पढ़ा था, कोई सम्‍पन्‍न गांव देखकर उसमें भीख मांगने के लिये गया। उस गांव में एक धनी डाकू रहता था, जो समस्‍त वर्णों की विशेषता का जानकार था। उसके हृदय में ब्राह्मणों के प्रति भक्‍ति थी। वह सत्‍यप्रतिज्ञ और दानी था। ब्राह्मण ने उसी के घर जाकर भिक्षा के लिये याचना की। दस्‍यु ने ब्राह्मण को रहने के लिये एक घर देकर वर्षभर निर्वाह करने के योग्‍य अन्‍न की भिक्षा का प्रबंध कर दिया, उपयुक्‍त नया वस्‍त्र दिया और उसकी सेवा में एक युवती दासी भी दे दी, जो उस समय पति से रहित थी। राजन्! दस्‍यु से ये सारी वस्‍तुएं पाकर ब्राह्मण मन-ही–मन बड़ा प्रसन्‍न हुआ; और उस सुंदर गृह में दासी के साथ आनन्‍दपूर्वक रहने लगा। वह दासी के कुटुम्‍ब के लिये कुछ सहायता भी करने लगा। ब्राह्मण ने भील के उस समृद्धिशाली भवन में अनेक वर्षों तक निवास किया। उसका नाम गौतम था। उसने बाण चलाकर लक्ष्‍य बेधने का वहां बडे़ यत्‍न के साथ अभ्‍यास किया। राजन्! गौतम भी दस्‍युओं की तरह प्रतिदिन जंगल में सब ओर घूम–फिरकर हंसों का शिकार करने लगा। वह हिंसा में बड़ा–प्रवीण था। उसमें दया नहीं थी। वह सदा प्राणियों को मारने की ही ताक में लगा रहता था। डाकुओं के सम्‍पर्क में रहने से गौतम भी उनके ही समान पूरा डाकू बन गया। डाकुओं के गांव में सुखपूर्वक रहकर प्रतिदिन बहुत–से पक्षियों का शिकार करते हुए उसके कई महीने बीत गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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