महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 174 श्लोक 14-27
चतुसप्तत्यधिकशततम (174) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
मैं तो अकेला हूं। न तो दूसरा कोई मेरा है और न मैं किसी दूसरे का हूं। मैं उस पुरूष को नहीं देखता, जिसका मैं होउं तथा उसको भी नहीं देखता, जो मेरा हो (न मुझ पर किसी की ममता है, न मेरा ही किसी पर ममत्व)। यह शरीर भी मेरा नहीं अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है। ये सब वस्तुएं जैसी मेरी हैं, वैसी ही दूसरों की भी हैं। ऐसा सोचकर इनके लिये मेरे मन में कोई व्यथा नहीं होती। इसी बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक। जिस प्रकार समुद्र में बहते हुए दो काष्ठ कभी–कभी एक–दूसरे से मिल जाते हैं और मिलकर फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार इस लोक में प्राणियों का समागम होता है। इसी तरह पुत्र, पौत्र, जाति–बान्धव और संबंधी भी मिल जाते है। उनके प्रति कभी आसक्ति नहीं बढा़नी चाहिये, क्योंकि एक दिन उनसे बिछोह होना निश्चित है। तुम्हारा पुत्र किसी अज्ञान स्थिति से आया था और अब अज्ञात स्थिति में ही चला गया है। न तो वह तुम्हें जानता था और न तुम उसे जानते थे, फिर तुम उसके कौन होकर किसलिये शोक करते हो ? संसार में विषयों की तृष्णा से जो व्याकुलता हेाती है, उसी का नाम दुख है और उस दुख का विनाश ही सुख है। उस सुख के बाद (पुन कामनाजनित) दुख होता है। इस प्रकार बारंबार दुख ही होता रहता है। सुख के बाद दुख ओर दुख के बाद सुख आता है। मनुष्यों के सुख और दुख चक्र की भांति घूमते रहते हैं। इस समय तुम सुख से दुख में आ पड़े हो। अब फिर तुम्हें सुख की प्राप्ति होगी । यहां किसी भी प्राणी को न तो सदा सुख ही प्राप्त होता है और न सदा दुख ही। यह शरीर ही सुख का आधार है और यही दुख का भी आधार है। देहाभिमानी पुरूष शरीर से जो–जो कर्म करता है, उसी के अनुसार वह सुख एवं दु:खरूप फल भोगता है। यह जीवन स्वभावत शरीर के साथ ही उत्पन्न होता है। दोनों के साथ–साथ विविध रूपों में रहते हैं और साथ ही साथ नष्ट हो जाते है। मनुष्य नाना प्रकार के स्नेह–बंधनों में बंधें हुए हैं, अत: वे सदा विषयों की आसक्ति से घिरे रहते है, इसीलिये जैसे बालू द्वारा बनाये हुए पुल जल के वेग से बह जाते हैं, उसी प्रकार उन मनुष्यों की विषयकामना सफल नहीं होती, जिससे वे दुख पाते रहते हैं। तेलीलोग तेल के लिये जैसे तिलों को कोल्हू में पेरते हैं, उसी प्रकार स्नेह के कारण सब लोग अज्ञानजनित क्लेशों द्वारा सृष्टिचक्र में पिस रहे हैं। मनुष्य स्त्री-पुत्र आदि कुटुम्ब के लिये चारी आदि पाप कर्मो का संग्रह करता है, किंतु इस लोक और परलोक में उसे अकेले ही उन समस्त कर्मों का क्लेशमय फल भोगना पड़ता है। स्त्री, पुत्र और कुटुम्ब हुए सभी मनुष्य उसी प्रकार शोक के समुद्र में डूब जाते हैं जैसे बूढ़ें जंगली हाथी दलदल में फंसकर नष्ट हो जाते है। प्रभों! यहां सब लोगों को पुत्र, धन, कुटुम्बी तथा संबंधियों का नाश होने पर दावानल के समान दाह उत्पन्न करने वाला महान दु:ख प्राप्त होता है, परंतु सुख–दुख और जन्म–मृत्यु आदि यह सब कुछ प्रारब्ध के ही अधीन है।
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