महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 177 श्लोक 30-44
सप्तसप्तत्यधिकशततम (177) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
‘पंचभूतगण, अंहकार आदि के साथ तुम सब लोग काम और लोभ के पीछे लगे रहने वाला हो। अत: तुम पर यहां मेरा रतीभर भी स्नेह नहीं है। इसलिये मैं समस्त कामनाओं को छोड़कर केवल अब सत्वगुण का आश्रय ले रहा हूं। ‘मैं अपने शरीर में मन के अंदर सम्पूर्ण भूतों को देखता हुआ बुद्धि को योग में, एकाग्रचित को श्रवण–मनन आदि साधनों में ओर मन को परब्रह्म परमात्मा में लगाकर रोग–शोक से रहित एवं सुखी हो सम्पूर्ण लोकों में अनासक्त भाव से विचरूंगा, जिससे तू फिर मुझे इस प्रकार दुखों में न डाल सकेगा। ‘काम, तृष्णा, शोक और परिश्रम–इनका उत्पतिस्थान सदा तू ही है। जब तक तू मुझे प्रेरित करके इधर–उधर भटकता रहेगा तब तक मेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं है। ‘मैं तो समझता हूं कि धन का नाश होने पर जो अत्यन्त दु:ख होता है, वही सबसे बढ़कर है, क्योंकि जो धन से वन्चित हो जाता है, उसे अपने भाई–बन्धु और मित्र भी अपमानित करने लगते हैं। ‘दरिद्र को सहस्त्र–सहस्त्र तिरस्कार सहने पडते है; अत: निर्धन अवस्था में बहुत –से कष्टादायक दोष हैं, और धन में जो सुख का लेश प्रतीत होता है, वह भी दु:खों से ही सम्पादित होता है। ‘जिस पुरूष के पास धन होने का संदेह होता है, उसे उसका धन लूटने मार डालते हैं अथवा उसे तरह–तरह की पीडाएं देकर सताते और सदा उदेव्ग में डाले रहते हैं। ‘धनलोलूपता दुख का कारण है, यह बात बहुत देर के बाद मेरी समझ में आयी है। काम, तू जिस–जिसे का आश्रय लेता है, उसी–उसी के पीछे पड जाता है। ‘तू तत्वज्ञान रहित और बालक के समान मूढ़ है, तुझे संतोष देना कठिन है। आग के समान तेरा पेट भरना असम्भव है। तू यह नहीं जानता कि कौन–सी वस्तु सुलभ है और कौन–सी दुर्लभ। ‘काम, पाताल के समान तुझे भरना कठिन है। तू मुझे दुखों में फंसाना चाहता है, किंतु अब तू फिर मेरे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता। ‘अकस्मात् धन का नाश हो जाने से वैराग्य को प्राप्त होकर मुझे परम सुख मिल गया है। अब मैं भोगों का चिन्तन नहीं करूंगा। ‘पहले मैं बडे–बडे क्लेश सहता था, परंतु ऐसा बुद्धिहीन हो गया था कि ‘धन की कामना में कष्ट है’, इस बात का समझ ही नहीं पाता था। परंतु अब धन का नाश होने से उससे वंचित होकर मैं सम्पूर्ण अड़ों में क्लेश और चिन्ताओं से मुक्त होकर सुख से सोता हूं। ‘काम! मैं अपनी सम्पूर्ण मनोवृतियों को दूर हटाकर तेरा परित्याग कर रहा हूं। अब तू फिर मेरे साथ न तो रह सकेगा और न मौज ही कर सकेगा। ‘अब जो लोग मुझ पर आक्षेप या मेरा तिरस्कार करेंगे, उनके उस बर्ताव को मैं चुपचाप सह लूंगा। जो लोग मुझे मारे–पीटेंगे या कष्ट देंगे, उनके साथ भी मैं बदले में वैसा बर्ताव नहीं करूंगा। द्वेष के योग्य पुरूष का भी यदि साथ हो जाय और वह मुझे अप्रिय वचन कहने लगे तो मैं उस पर ध्यान न देकर उससे अप्रिय वचन नहीं बोलूंगा। ‘मैं सदा संतुष्ट एवं स्वस्थ इन्द्रियों से सम्पन्न रहकर भाग्यवश जो कुछ मिल जाय, उसी से जीवन–निर्वाह करता रहूंगा, परंतु तुझे कभी सफल न होने दूंगा, क्योंकि तू मेरा शत्रु है।
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