महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 200 श्लोक 1-18
द्विशततम (200) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
जापक ब्राह्राण और राजा इक्ष्वाकु की उत्तम गति का वर्णन तथा जापक को मिलनेवाले फल की उत्कृष्टता
युधिष्ठिर ने पूछा – पितामह ! उस समय विरूप के पूर्वोक्त वचन कहनेपर ब्राह्राण और राजा इक्ष्वाकु उन दोनों ने उसे क्या उत्तर दिया, यह मुझे बताइये। तथा आपने जो यह सद्योमुक्ति, क्रममुक्ति और लोकान्तर की प्राप्तिरूप तीन प्रकार की गति बतायी है, उनमें से वे दोनों किस गति को प्राप्त हुए ? उस समय उन दोनों में क्या बातचीत हुई और उन्होंने क्या किया ? भीष्मजी ने कहा –प्रभो ! तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर ब्राह्राण ने धर्म, यम, काल, मृत्यु और स्वर्ग इन सभी पूजनीय देवताओं का पूजन किया । वहॉ पहले से जो ब्राह्राण मौजूद थे और दूसरे भी जो श्रेष्ठ ब्राह्राण वहॉ पधारे थे, उन सबके चरणों मे सिर झुकाकर सबकी यथोचित पूजा करके ब्राह्राण ने राजा से कहा। ‘राजर्षे ! इस फल से संयुक्त होकर आप श्रेष्ठ गति को प्राप्त कीजिये और आपकी आज्ञा लेकर मैं फिर जप में लग जाऊँगा। ‘महाबली प्रथानाथ ! मुझे देवी सावित्री ने वर दिया है कि जप में तुम्हारी नित्य श्रद्धा बनी रहेगी’। राजा ने कहा – विप्रवर ! यदि इस प्रकार मुझे फल समर्पण करने के कारण आपको फल की प्राप्ति नहीं हो रही है और पुन: जप करने में ही आपकी श्रद्धा होती है तो आप मेरे साथ ही चलें और जप-दानजनित फल को प्राप्त करें। ब्राह्राण ने कहा – राजन् ! मैंने यहॉ सबके समीप आपको अपने जप का फल देने के लिये महान् प्रयत्न किया है; फिर भी आपका आग्रह साथ-साथ फल का उपभोग करने का रहा है; अत: हम दोनों समान फल के ही भागी हों। चलिये, जहॉ तक हम दोनों की गति हो सके, साथ-साथ चलें। भीष्मजी कहते है – राजन् ! उन दोनों का वहॉ ऐसा निश्चय जानकर सम्पूर्ण देवताओं तथा लोकपालों के साथ देवराज इन्द्र उस स्थानपर पर आये। उनके साथ साध्यगण, विश्वेदेवगण और मरूद्गण भी थे । बड़े-बड़े वाद्य बज रहे थे । नदियॉ, पर्वत, समुद्र, नाना प्रकार के तीर्थ, तपस्या, संयोगविधि, वेद, स्तोभ (साम-गान की पूर्ति के लिये बोले जानेवाले अक्षर हाई हावु इत्यादि), सरस्वती, नारद, पर्वत, विश्वावसु, हाहा, हूहू, परिवारसहित चित्रसेन गर्न्धव, नाग, सिद्ध, मुनि, देवाधिदेव प्रजापति ब्रह्रा, सहस्त्रों मस्तकवाले शेषनाग तथा अचिन्त्य देव भगवान् विष्णु भी वहॉ पधारे । प्रभो ! उस समय आकाश में भेरियॉ और तुरही आदि बाजे बज रहे थे। वहॉ उन महात्माओं पर दिव्य फूलों की वर्षा होने लगी । झुंड की झुंड अप्सराऍ सब ओर नृत्य करने लगीं। तदनन्तर मूर्तिमान् स्वर्ग ने ब्राह्राण से कहा – ‘महाभाग ! तुम सिद्ध हो गये ।‘ फिर राजासे कहा – ‘नरेश्वर ! तुम भी सिद्ध हो गये‘। राजन् ! तदनन्तर वे दोनों एक –दूसरे का उपकार करते हुए एक साथ हो गये । उन्होंने एक ही साथ अपने मन को विषयों की ओर से हटा लिया। तदनन्तर प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान – इन पॉचों प्राण-वायुओं को ह्रदय में स्थापित किया; इस प्रकार स्थित हुए उन दोनों ने मन को प्राण और अपान के साथ मिला दिया । भौहों के नीचे नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि रखते हुए मनसहित प्राण-अपान को उन्होंने दोनों भौहों के बीच स्थिर किया।
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