महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 203 श्लोक 11-23

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त्र्यधिकद्विशततम (203) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्र्यधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 11-23 का हिन्दी अनुवाद

उचित उपाय किये बिना कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, जैसे जल में रहनेवाले प्राणियों से जीविका चलानेवाले सूत के जाल बनाकर उनके द्वारा मछलियों को बॉध लेते हैं, जैसे मृगों के द्वारा मृगोंको, पक्षियों द्वारा पक्षियों को और हाथियों द्वारा हाथियों को पकड़ा जाता है, उसी प्रकार ज्ञेय वस्‍तु का ज्ञान के द्वारा ग्रहण होता है। हमने सुना है कि सर्प के पैरों से सर्प ही पहचानता हैं, उसी प्रकार मनुष्‍य समस्‍त शरीरों में शरीरस्‍थ ज्ञेयस्‍वरूप आत्‍मा को ज्ञान के द्वारा ही जान सकता है। जैसेइन्द्रियॉ भी इन्द्रियों द्वारा किसी ज्ञेय को नहीं जान सकतीं, उसी प्रकार यहॉ परा बुद्धि भी उस परम बोध्‍य तत्‍व को स्‍वयं नही देख पाती है; किंतु ज्ञाता पुरूष ही बुद्धि के द्वारा उसका साक्षात करता है। जैसे चन्‍द्रमा अमावस्‍या को प्रकाशहीन हो जाने के कारण दिखायी नहीं देता है; किंतु उस समय उसका नाश नहीं होता । उसी प्रकार शरीरधारी आत्‍मा के विषय में भी समझना चाहिये अर्थात आत्‍मा अदृश्‍य होने पर भी उसका अभाव नही है, ऐसा समझना चाहिये। जैसे चन्‍द्रमा अमावस्‍या को अपने प्रकाश्‍य स्‍थान से वियुक्‍त हो जाने के कारण दिखायी नहीं देता है, उसी प्रकार देहधारी आत्‍मा शरीर से वियुक्‍त होनेपर दृष्टिगोचर नहीं होता है। फिर वही चन्‍द्रमा जैसे अन्‍यत्र आकाश में स्‍थान पाकर पुन: प्रकाशित होने लगता हैं, उसी प्रकार जीवात्‍मा दूसरा शरीर धारण करके पुन: प्रकट जाता है। जन्‍म, वृद्धि और क्षय का जो प्रत्‍यक्ष दर्शन होता है, वह चन्‍द्रमण्‍डल में प्रतीत होनेवाली वृत्ति चन्‍द्रमा की नहीं है । उसी प्रकार शरीर का जन्‍म आदि होता है, उस शरीरधारी आत्‍मा का नहीं। जैसे किसी व्‍यक्ति का जन्‍म होता है, वह बढ़ता है और किशोर, यौवन आदि भिन्‍न-भिन्‍न अवस्‍थाओं में पहुंच जाता है तो भी यही समझा जाता है कि यह वही व्‍यक्ति है तथा अमावास्‍या के बाद जब चन्‍द्रमा पुन: मूर्तिमान होकर प्रकट होता है तो यही माना जाता है कि यह वही चन्‍द्रमा है (उसी प्रकार दूसरे शरीरमें प्रवेश करने पर भी वह देहधारी आत्‍मा वही है-ऐसा समझना चाहिये)। जैसे अन्‍धकाररूप राहु चन्‍द्रमा की ओर आता और उसे छोड़कर जाता हुआ नहीं दिखायी देता है, उसी प्रकार जीवात्‍मा भी शरीर में आता है और उसे छोड़कर जाता हुआ नहीं दीख पड़ता है ऐसा समझो। जैसे सूर्यग्रहणकाल में चन्‍द्रमा सूर्य से संयुक्‍त होनेपर सूर्य में छायारूपी राहु का दर्शन होता है, उसी प्रकार शरीरसे संयुक्‍त होनेपर शरीरधारी आत्‍मा की उपलब्धि होती है। जैसे चन्‍द्रमा-सूर्य से अलग होनेपर सूर्य में राहु की उपलब्धि नहीं होती, उसी प्रकार शरीर से विलग होनेपर शरीरधारी आत्‍मा का दर्शन नहीं होता। जैसे अमावास्‍या का अतिक्रमण करनेपर चन्‍द्रमा नक्षत्रों से संयुक्‍त होता है, उसी प्रकार जीवात्‍मा एक शरीर का त्‍याग करनेपर कर्मो के फलस्‍वरूप दूसरे शरीर से युक्‍त होता है।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्म पर्व मे मनु और बृहस्‍पति का संवादरूप दो सौ तीनवॉ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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