महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 213 श्लोक 1-14

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त्रयोदशाधिकद्विशततम (213) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: त्रयोदशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 1-14 का हिन्दी अनुवाद

जीवोत्‍पत्ति का वर्णन करते हुए दोषों और बन्‍धनों से मुक्‍त होने के लिये विषयासक्ति के त्‍याग का उपदेश

भीष्‍म जी कहते हैं – भरतश्रेष्‍ठ ! रजोगुण और तमोगुण से मोह की उत्‍पत्ति होती हैं, तथा उससे क्रोध, लोभ, भय एवं दर्प उत्‍पन्‍न होते हैं । इन सबका नाश करने से ही मनुष्‍य शुद्ध होता हैं। ऐसे शुद्धात्‍मा पुरूष ही उस अक्षय, अविनाशी, परमदेव, अव्‍यक्‍तस्‍वरूप, देवप्रवर परमात्‍मा विष्‍णु का तत्‍व जान पाते है। उसी ईश्‍वर की माया से आवृत हो जाने पर मनुष्‍यों के ज्ञान और विवेक का नाश हो जाता है, तथा वे बुद्धि के व्‍यामोह से क्रोध के वशीभूत हो जाते हैं। क्रोध से काम उत्‍पन्‍न होता है और फिर काम से मनुष्‍य लोभ, मोह, मान, दर्प एवं अहंकार को प्राप्‍त होते है । तत्‍पश्‍चात् अहंकार से प्रेरित होकर ही उनकी सारी क्रियाऍ होने लगती हैं। ऐसे क्रियाओं द्वारा मनुष्‍य आ‍सक्ति से युक्‍त हो जाता है । आसक्ति से शोक होता है । फिर सुख-दु:खयुक्‍त कार्य आरम्‍भ करने से मनुष्‍य को जन्‍म और मृत्‍यु के कष्‍ट स्‍वीकार करने पड़ते है। जन्‍म के निमित्‍त से गर्भवास का कष्‍ट भोगना पड़ता है । रज और वीर्य के परस्‍पर संयुक्‍त होनेपर गर्भवासका अवसर आता है, जहाँ मल और मूत्र से भीगे तथा रक्‍त के विकार से मलिन स्‍थान में रहना पड़ता है। तृष्‍णा से अभिभूत तथा काम, क्रोध आदि दोषों से बद्ध होकर उन्‍हीं का अनुसरण करता हुआ मनुष्‍य (महान् दु:ख उठाता रहता है । यदि उनसे छूटने की इच्‍छा हो तो) स्त्रियों को संसाररूपी वस्‍त्र को बुननेवाली तन्‍तुवाहिनी समझे और उनसे दूर रहें। स्त्रियाँ प्रकृति के तुल्‍य है; अत: क्षेत्रस्‍वरूपा है और पुरूष क्षेत्रज्ञरूप हैं (जैसे प्रकृति अज्ञानी पुरूष को बाँधती हैं, उसी प्रकार ये स्त्रियाँ पुरूषों को अपने मोहजाल में बाँध लेती हैं) इसलिये सामान्‍यत: प्रत्‍येक पुरूष को विशेष प्रयत्‍नपूर्वक स्‍त्री के संसर्ग से दूर रहना चाहिये। ये स्त्रियाँ भयानक कृत्‍या के समान हैं; अत: अज्ञानी मनुष्‍यों को मोह में डाल देती हैं । इन्द्रियों में विकार उत्‍पन्‍न करनेवाली यह सनातन नारीमूर्ति रजोगुण से तिरोहित है। अत: स्‍त्री सम्‍बन्‍धी अनुराग के कारण पुरूष के वीर्य से जीवों की उत्‍पत्ति होती है, जैसे मनुष्‍य अपनी ही देह से उत्‍पन्‍न हुए जॅू और लीख आदि स्‍वेदज कीटों को अपना न मानकर त्‍याग देता हैं, उसी प्रकार अपने कहलानेवाले जो अनात्‍मा पुत्रनामधारी कीट हैं, उन्‍हें भी त्‍याग देना चाहिये। इस शरीर से वीर्यद्वारा अथवा पसीनों द्वारा स्‍वभाव से अथवा प्रारब्‍ध के अनुसार जन्‍तुओं का जन्‍म होता रहता है । बुद्धिमान पुरूषों को उनकी उपेक्षा करनी चाहिये। तमोगुण मे स्थित रजोगुण तथा रजोगुण में स्थित सत्‍वगुण रजोगुण में स्थित हो जाता है, तब ज्ञान का अधिष्‍ठानभूत अव्‍यक्‍त आत्‍मा बुद्धि और अहंकार से युक्‍त हो जाता है । वह अव्‍यक्‍त आत्‍मा ही देहधारी प्राणियों का बीज है और वह बीजभूत आत्‍मा ही गुणों के संग के कारण जीव कहलाता है । वही काल से युक्‍त कर्म से प्रेरित हो संसार चक्र में घूमता रहता है। जैसे स्‍वप्‍नावस्‍था में यह जीव मनके द्वारा ही दूसरा शरीर धारण करके क्रीडा करता है, उसी प्रकार वह कर्मगर्भित गुणों द्वारा गर्भमें उपलब्‍ध होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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