महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 213 श्लोक 15-21
त्रयोदशाधिकद्विशततम (213) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
बीजभूत कर्म से जिस-जिस इन्द्रिय को उत्पत्त्िा के लिये प्रेरणा प्राप्त होती है, रागयुक्त चित्त एवं अहंकार से वही-वही इन्द्रिय प्रकट हो जाती है। शब्द के प्रति राग होने से उस भावितात्मा पुरूष की श्रवणेन्द्रिय प्रकट होती है । रूप की प्रति राग होने से नेत्र और गन्ध ग्रहण करने की इच्छा होने से नासिका का प्राकटय होता है। स्पर्श के प्रति राग होने से त्वगिन्द्रिय और वायु का प्राकटय होता है । वायु प्राण और अपान का आश्रय है । वही उदान, व्यान तथा समान है। इस प्रकार वह पाँच रूपों में प्रकट हो शरीर यात्रा का निर्वाह करती है। मनुष्य जन्मकाल में पूर्णत: उत्पन्न हुए कर्मजनित अंगों और सम्पूर्ण शरीर से युक्त होकर जन्म ग्रहण करता है । वह मनुष्य आदि, मध्य और अन्त में भी शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीडि़त रहता है। शरीर के ग्रहणमात्र से दु:ख की प्राप्ति निश्चित समझनी चाहिये । शरीर में अभिमान करने से उस दु:ख की वृद्धि होती है । अभिमान के त्याग से उन दु:खों का अन्त होता है । जो दु:खों के अन्त होने की इस कला को जानता है, वह मुक्त हो जाता है। इन्द्रियों की उत्पत्ति और लय –ये दोनों कार्य रजोगुण में ही होते हैं । विद्वान् पुरूष शास्त्रदृष्टि से इन बातों की भलीभाँति परीक्षा करके यथोचित आचरण करे। जिससे तृष्णा का अभाव है उस पुरूष को ये ज्ञानेन्द्रियाँ विषयों की प्राप्ति नहीं करातीं । इन्द्रियों के विषयासक्ति से रहित हो जानेपर देही पुन: शरीर को धारण नहीं करता।
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