महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 214 श्लोक 1-13
चतुर्दशाधिकद्विशततम (214) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
ब्रह्राचर्य तथा वैराग्य से मुक्ति
भीष्म जी कहते है – राजन् ! अब मैं तुम्हें शास्त्र दृष्टि से मोक्ष का यथावत् उपाय बताता हूँ। शास्त्रविहित कर्मों का निष्काम भाव से आचरण करता हुआ मनुष्य तत्वज्ञान से परमगति को प्राप्त कर लेता है। समस्त प्राणियों मे मनुष्य श्रेष्ठ कहलाता है । मनुष्यों में द्विजों को और द्विजों में भी मन्त्रद्रष्टा (वेदज्ञ) ब्राह्राणों को श्रेष्ठ बताया गया है। वेद – शास्त्रों के यथार्थ ज्ञाता ब्राह्राण समस्त भूतों के आत्मा, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी होते हैं । उन्हें परमार्थतत्व का पूर्ण निश्चय होता है। जैसे नेत्रहीन पुरूष मार्ग में अकेला होनेपर तरह-तरह के दु:ख पाता हैं, उसी प्रकार संसार में ज्ञानहीन मनुष्य को भी अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं; इसलिये ज्ञानी पुरूष ही सबसे श्रेष्ठ है। धर्म की इच्छा रखनेवाले मनुष्य शास्त्र के अनुसार उन-उन यज्ञादि सकाम धर्मों का अनुष्ठान करते हैं; किंतु आगे बताये जानेवाले गुणों के बिना इन्हें सबके लिये समानरूप से अभीष्ट मोक्ष नामक पुरूषार्थ की प्राप्ति नहीं होती। वाणी, शरीर और मन की पवित्रता, क्षमा, सत्य, धैर्य और स्मृति –इन गुणों को प्राय: सभी धर्मों के धर्मज्ञ पुरूष कल्याणकारी बताते है। यह जो ब्रह्राचर्य नामक गुण है, इसे तो शास्त्रों में ब्रह्राका स्वरूप ही बताया गया है । यह सब धर्मों से श्रेष्ठ है । ब्रह्राचर्य के पालन से मनुष्य परमपद को प्राप्त कर लेते है। वह परमपद पाँच प्राण, मन, बुद्धि और दसों इन्द्रियों के संघातरूप शरीर के संयोग से शून्य है, शब्द और स्पर्श से रहित है । जो कान से सुनता नहीं, आँख से देखता नहीं और वाणी द्वारा कुछ बोलता नहीं है, तथा जो मन से भी रहित है, वही वह परमपद या ब्रह्रा है । मनुष्य बुद्धि के द्वारा उसका निश्चय करे और उसकी प्राप्ति के लिये निष्कलंक ब्रह्राचर्य व्रत का पालन करे। जो मनुष्य इस व्रत का अच्छी तरह पालन करता हैं, वह ब्रह्रालोक प्राप्त कर लेता है। मध्यम श्रेणी के ब्रह्राचारी को देवताओं का लोक प्राप्त होता है और कनिष्ठ श्रेणी का विद्वान् ब्रह्राचारी श्रेष्ठ ब्राह्राण के रूप में जन्म लेता है। ब्रह्राचर्य का पालन अत्यन्त कठिन है । उसके लिये जो उपाय है, वह मुझसे सुनो । ब्राह्राण को चाहिये कि जब रजोगुण की वृत्ति प्रकट होने और बढ़ने लगे तो उसे रोक दे। स्त्रियों की चर्चा न सुने । उन्हें नंगी अवस्था में न देखे; क्योंकि यदि किसी प्रकार नग्नावस्थाओं में उन पर दृष्टि चली जाती है तो दुर्बल हृदयवाले पुरूषों के मन में रजोगुण-राग या कामभाव का प्रवेश हो जाता है। ब्रह्राचारी के मन में यदि राग या काम-विकार उत्पन्न हो जाय तो वह आत्मशुद्धि के लिये कृच्छ्रव्रत[१] का आचरण करे । यदि वीर्य की वृद्धि होने से उसे कामवेदना अधिक सता रही हो तो वह नदी या सरोवर के जल में प्रवेश करके स्नान करे । यदि स्वप्नावस्था में वीर्यपात हो जाय तो जल में गोता लगाकर मन-ही-म तीन बार अघमर्षण[२] सूक्त का जप करे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘कृच्छ्र’ शब्द से प्राजापत्यकृच्छ्र का ग्रहण किया जाता है । प्राजापत्यकृच्छ्र विधान इस प्रकार है- त्रयहं प्रातस्त्रहं सायं त्रयहमद्यादयाचितम् । त्रयहं परं च नाश्नीयात् प्राजापत्योयमुच्युते ।। तीन दिन केवल प्रात:काल, तीन दिन केवल सांयकाल तथा तीन दिन तक केवल अयाचित अन्न का भोजन करे । फिर तीन दिनों तक उपवास रखे । इसे प्राजापत्यकृच्छ्र कहा जाता है ।
- ↑ अघमर्षणसूक्त निम्नलिखित है – ऋतच सत्यचाभीद्धात्तपसोध्यजायत । ततो रात्रयजायत तत: समुद्रो अर्णव: । समुद्रादर्णवादधिसंवत्सरो अजायत । अहोरात्राणि विदधद्विश्वस्य मिषतो वशी । सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत् । दिवं च पृथिवीचान्तरिक्षमथो स्व: