महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 214 श्लोक 14-29

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चतुर्दशाधिकद्विशततम (214) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)

महाभारत: शान्ति पर्व: चतुर्दशाधिकद्विशततम अध्याय: श्लोक 14-29 का हिन्दी अनुवाद

विवेकी पुरूष को इस प्रकार ज्ञानयुक्‍त एवं संयमशील मन के द्वारा अपने अन्‍त:करण मे प्रकट हुए पापमय का‍मविकार को दग्‍ध कर देना चाहिये। मुर्दे के समान अपवित्र एवं मलयुक्‍त नाडि़याँ जिस प्रकार देह के भीतर दृढ़तापूर्वक बँधी हुई हैं, उसी प्रकार (अज्ञान से) उसके भीतर जीवात्‍मा भी दृढ़ बन्‍धन में बँधा हुआ है, ऐसा जानना चाहिये। भोजन से प्राप्‍त हुए रस नाड़ी समूहों द्वारा संचरित होकर मनुष्‍यों के वात, पित्‍त, कफ, रक्‍त, त्‍वचा, मांस, स्‍नायु, अस्थि, चर्बी एवं सम्‍पूर्ण शरीर को तृप्‍त एवं पुष्‍ट करते है। इस शरीर के भीतर उपर्युक्‍त वात, पित्‍त आदि दस वस्‍तुओं को वहन करनेवाली दस ऐसी नाडि़याँ है जो पाँचों इन्द्रियों के शब्‍द आदि गुणों को ग्रहण करने की शक्ति प्राप्‍त करानेवाली है । उन्‍हीं के साथ अन्‍य सहस्‍त्रों सूक्ष्‍म नाडि़याँ सारे शरीर में फैली हुई हैं। जैसे नदियाँअपने जल से यथासमय समुद्र को तृप्‍त करती रहती हैं, उसी प्रकार रस को बहानेवाली ये नाड़ीरूप नदियाँइस देह-सागर को तृप्‍त किया करती हैं। हृदय के मध्‍यभाग में एक मनोवहा नाम की नाड़ी है जो पुरूषों के कामविषयक संकल्‍प के द्वारा सारे शरीर से वीर्य को खींचकर बाहर निकाल देती है। उस नाड़ी के पीछे चलनेवाली और सम्‍पूर्ण शरीर में फैली हुई अन्‍य नाडि़याँ तेजस-गुणरूप ग्रहण की शक्ति को वहन करती हुई नेत्रों तक पहॅुचती हैं। जिस प्रकार दूध मे छिपे हुए घी को मथानी से मथकर अलग किया जाता है, उसी प्रकार देहस्‍थ संकल्‍प और इन्द्रियोंसे होनेवाले स्त्रियों के दर्शन एवं स्‍पर्श आदि से मथित होकर पुरूष का वीर्य बाहर निकल जाता है। जैसे स्‍वप्‍न में संसर्ग न होनेपर भी मनके संकल्‍प से उत्‍पन्‍न हुआ स्‍त्रीविषयक राग उपस्थित हो जाता है, उसी प्रकार मनोवहा नाड़ी पुरूष के शरीर से संकल्‍पजनित वीर्य का नि:सारण कर देती है। भगवान महर्षि अत्रि वीर्य उत्‍पत्ति और गति को जानते हैं तथा ऐसा कहते है कि मनोवहा नाड़ी, संकल्‍प और अन्‍न – ये तीन ही वीर्य के कारण हैं । इस वीर्य का देवता इन्‍द्र है; इसलिये इसे इन्द्रिय कहते हैं। जो यह जानते है कि वीर्य की गति ही सम्‍पूर्ण प्राणियों में वर्णसंकरता उत्‍पन्‍न करनेवाली है, वे विरक्‍त हो अपने सारे दोषों को भस्‍म कर डालते हैं; इसलिये वे पुन: देह के बन्‍धन में नहीं पड़ते। जो केवल शरीर की रक्षा के लिये भोजन आदि कर्म करता हैं, वह अभ्‍यास के बल से गुणों की साम्‍यावस्‍थारूप निर्विकल्‍प समाधि प्राप्‍त करके मन के द्वारा मनोवहा नाड़ी को संयम में रखते हुए अन्‍तकाल में प्राणों को सुषुम्‍णा मार्ग से ले जाकर संसार बन्‍धन से मुक्‍त हो जाता है । उन महात्‍माओं के मन में तत्‍वज्ञान का उदय हो जाता है; क्‍योंकि प्रणवोपासना से परिशुद्ध हुआ उनका मन नित्‍य प्रकाशमय और निर्मल हो जाता है। अत: मन को वश में करने के लिये मनुष्‍य को निर्दोष एवं निष्‍काम कर्म करे चाहिये। ऐसा करने से वह रजोगुण और तमोगुण से छूटकर इच्‍छानुसार गति प्राप्‍त कर लेता है। युवावस्‍था में प्राप्‍त किया हुआ ज्ञान प्राय: बुढ़ापे में क्षीण हो जाता है, परंतु परिपक्‍वबु‍द्धि मनुष्‍य समयानुसार ऐसा मा‍नसिक बल प्राप्‍त कर लेता है, जिससे उसका ज्ञान कभी क्षीण नहीं होता। वह परिपक्‍व बुद्धिवाला मनुष्‍य अत्‍यन्‍त दुर्गम मार्ग के समान गुणों के बन्‍धन को पार करके जैसे-जैसे अपने दोष देखता है, वैसे-ही-वैसे उन्‍हें लाँधकर अमृतमय परमात्‍मपद को प्राप्‍त कर लेता है ।

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्व के अन्‍तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें श्रीकृष्‍ण सम्‍बन्‍धी अध्‍यात्‍म कथन विषयक दो सौ चौदहवाँ अध्‍याय पूरा हुआ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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