महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 219 श्लोक 46-52
एकोनविंशत्यधिकद्विशततम (219) अध्याय: शान्ति पर्व (मोक्षधर्म पर्व)
श्रुति प्रतिपादित प्रमाणो का विचार ओर शास्त्र में बताये हुए मंगलमय साधनों का अनुष्ठान करने से मनुष्य जरा और मृत्यु के भय से रहित होकर सुख से सोता है । जब पुण्य और पाप का क्षय तथा उनसे मिलनेवाले सुख-दु:ख आदि फलों का नाश हो जाता है, उस समय सम्पूर्ण पदार्थों मे सर्वथा आसक्ति से रहित पुरूष आकाश के समान निर्लेप और निर्गुण परमात्मा में स्थित हुए उसका साक्षात्कार कर लेते हैं। जैसे मकड़ी जाला तानकर उस पर चक्करलगाती रहती है; किंतु उन जालों का नाश हो जाने पर एक स्थान पर स्थित हो जाती है, उसी प्रकार अविद्या के वशीभूत हो नीचे गिरनेवाला जीव कर्मजाल में पड़कर भटकता रहता है और उससे छूटने पर दु:ख से रहित हो जाता है । जैसे पर्वत पर फेंका हुआ मिटटी का ढेला ससे टकराकर चूर-चूर हो जाता है, उसी प्रकार उसके सम्पूर्ण दु:खों का विध्वंस हो जाता है। जैसे रूरूनामक मृग अपने पुराने सींग को और सॉप अपनी केंचुल को त्यागकर उसकी ओर देखे बिना ही चल देता है, उसी प्रकार ममता और अभिमान से रहित हुआ पुरूष संसार बन्धन से मुक्त हो अपने सम्पूर्ण दु:खों को दूर कर देता है। जिस प्रकार पक्षी वृक्ष को जल में गिरते देख उसमें आसक्ति छोड़कर वृक्ष का परित्याग करके उड़ जाता है, उसी प्रकार मुक्त पुरूष सुख और दु:ख दोनों का त्याग करके सूक्ष्म शरीर से रहित हो उत्तम गति को प्राप्त होता है। भीष्मजी कहते हैं – राजन् ! स्वयं आचार्य पंचशिख के बताये हुए इस अमृतमय ज्ञानोपदेश को सुनकर राजा जनक एक निश्चित सिद्धान्त पर पहॅुच गये और सारी बातों पर विचार करके शोकरहित हो बड़े सुख से रहने लगे; फिर तो उनकी स्थिति ही कुछ और हो गयी । एक बार एप मिथिलानरेश राजा जनक ने मिथिला नगरी को आग से जलती देखकर स्वयं यह उद्गगार प्रकट किया था कि इस नगर के जलने सेमेरा कुछ भी नहीं जलता है। राजन् ! यहॉ जो मोक्षतत्व का निर्णय किया गया है, उसका जो पुरूष सदा स्वाध्याय और चिन्तन करता रहता है, उसे उपद्रवों का कष्ट नहीं भोगना पड़ता । दु:ख तो उसके पास कभी फटकने नहीं पाते हैं तथा जिस प्रकार राजा जनक कपिलमतावलम्बी पंचशिख के समागम से इस ज्ञान को पाकर मुक्त हो गये थे, उसी प्रकार वह भी मोक्ष प्राप्त कर लेता है। नृपक्षेष्ठ ! महामते ! पूर्वकाल में जिस उद्देश्य से अग्नि द्वारा मिथिलानगरी जलायी गयी, उसे बताता हूँ, सूनो। जनकवंशी राजा जनदेव परमात्मा मे कर्मो को स्थापित करके सर्वात्मता को प्राप्त होकर उसी भाव से सर्वत्र विचरण करते थे। महाप्रज्ञ जनक अध्यात्मतत्व के ज्ञाता होने के कारण निष्कामभाव से यज्ञ, दान, होम और पृथ्वी का पालन करते हुए भी उस अध्यात्मज्ञान में ही तन्मय रहते थे। एक समय सम्पूर्ण लोकों के अधिपति साक्षात् भगवान नारायण ने राजा जनक के मनोभाव की परीक्षा लेने का विचार किया; अत: वे ब्राह्राणरूप में वहॉ आये । उन परम बुद्धिमान श्रीहरि ने मिथिलानगरी में कुछ प्रतिकूल आचरण किया । तब वहॉ के श्रेष्ठ द्विजों ने उन्हें पकड़कर राजा को सौंप दिया । ब्राह्राण के अपराध को लक्ष्य करके राजा ने उनसे इस प्रकार कहा। जनक ने कहा –ब्राह्राण ! मैं तुम्हें किसी प्रकार दण्ड नहीं दॅूगा, तुम मेरे राज्य से, जहॉ तक मेरी राज्य भूमि की सीमा है, उससे बाहर निकल जाओ। मिथिलानरेश ऐसा कहनेपर उन श्रेष्ठ ब्राह्राण ने मन्त्रियों से घिरे हुए उन महात्मा राजा जनक से इस प्रकार कहा। ‘महाराज ! आप सदा पद्मनाभ भगवान नारायण के चरणों में अनुराग रखनेवाले और उन्हीं के शरणागत हैं । अहो ! आप कृतार्थरूप हैं, आपका कल्याण हो ! अब मैं चला जाऊँगा’। ऐसा कहकर वे ब्राह्राण वहॉ से चल दिये । जाते-जाते राजा की परीक्षा लेने के लिये उन श्रेष्ठ ब्राह्राणरूपधारी भगवान श्रीहरि ने स्वयं ही मिथिलानगरी में आग लगा दी। मिथिला को जलती हुई देखकर राजा तनिक भी विचलित नहीं हुए । लोगों के पूछने पर उन्होंने उनसे यह बात कही। ‘मेरे पास आत्मज्ञानरूप अनन्त धन है; अत: अब मेरे लिये कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं है, इस मिथिलानगरी के जल जानेपर भी मेरा कुछ नहीं जलता है’। राजा जनक के इस प्रकार कहनेपर उन द्विजश्रेष्ठ ने भी उनकी बात सुनी और उनके मनोभाव को समझा; फिर उन्होंने मिथिलानगरी को पूर्ववत् सजीवएवं दाहरहित कर दिया। साथ ही उन्होंने राजा को अपने साक्षात् स्वरूप का दर्शन कराया और उन्हें वर देते हुए पुन: कहा – ‘नरेश्वर ! तुम्हारा मन सदभावपूर्वक धर्म में लगा रहे औश्र बुद्धि तत्वज्ञान में परिनिष्ठित हो । सदा विषयों से विरक्त रहकर तुम सत्य के मार्ग पर डटे रहो । तुम्हारा कल्याण हो । अब मैं जाता हूँ’। उनसे ऐसा कहकर भगवान श्रीहरि वहीं अन्तर्धान हो गये । राजन् ! यह प्रसंग तुम्हें सुना दिया । अब और क्या सुनना चाहते हो ?
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